भारत के स्मारक, गुफाएं, किले, मंदिर
आगरे का किला
आगरे के किले का निर्माण 1656 के आस पास शुरु हुआ, जब आरंभिक संरचना मुगल बादशाह अकबर ने निर्मित कराई, इसके बाद का कार्य उनके पोते शाह जहां ने कराया, जिन्होंने किले में सबसे अधिक संगमरमर लगवाया। यह किला अर्ध चंद्राकार, पूर्व दिशा में चपटा है और इसकी एक सीधी, लम्बी दीवार नदी की ओर जाती है। इस पर लाल सैंड स्टोन के दोहरे प्राचीर बने हैं, जिन पर नियमित अंतराल के बाद बेस्टन बनाए गए है। बाहरी दीवार के आस पास 9 मीटर चौड़ी मोट है। एक आगे बढ़ती 22 मीटर ऊंची अंदरुनी दीवार अपराजेय प्रतीत होती है। किले की रूपरेखा नदी के प्रवाह की दिशा में निर्धारित होती है, जो उन दिनों इसके बगल से बहती थी। इस का मुख्य अक्ष नदी के समानान्तर है और दीवारें शहर की ओर हैं।
इस किले में मूलत: चार प्रवेश द्वार थे, जिनमें से दो को आगे चलकर बंद कर दिया गया। आज दर्शकों को अमर सिंह गेट से प्रवेश करने की अनुमति है। जहांगीर महल पहला उल्लेखनीय भवन है जो अमर सिंह प्रवेश द्वार से आने पर अतिथि सबसे पहले देखते हैं। जहांगीर अकबर का बेटा था और वह मुगल सिंहासन का उत्तराधिकारी भी था। जहांगीर महल का निर्माण अकबर ने महिलाओं के लिए कराया था। यह पत्थरों का बना हुआ है और इसकी बाहरी सजावट सादगी वाली है। पत्थर के बड़े बाउल पर सजावटी पर्शियन पच्चीकारी की गई है, जो संभवतया सुगंधित गुलाब जल को रखने के लिए बनाया गया था। अकबर ने जहांगीर महल के पास अपनी मनपसंद रानी जोधा बाई के लिए एक महल का निर्माण भी कराया था।
शाहजहां द्वार निर्मित पूरी तरह से संगमरमर का बना हुआ खास महल विशिष्ट इस्लामिक - पर्शियन विशेषताओं का प्रदर्शन करता है। इनके साथ हिन्दु विशेषताओं की एक अद्भुत श्रृंखला भी मिश्रित की गई है जैसे कि छतरियां। इसे बादशाह का सोने का कमरा या आरामगाह माना जाता है। खास महल में सफेद संगमरमर की सतह पर चित्र कला का सबसे सफल उदाहरण दिया गया है। खास महल की बांईं ओर मुसम्मन बुर्ज है जिसका निर्माण शाहजहां ने कराया था। यह सुंदर अष्टभुजी स्तंभ एक खुले मंडप के साथ है। इसका खुलापन, ऊंचाइयां और शाम की ठण्डी हवाएं इसकी कहानी कहती है। यही वह स्थान है जहां शाहजहां ने ताज को निहारते हुए अंतिम सांसें ली थी।
शीश महल या कांच का बना हुआ महल हमाम के अंदर सजावटी पानी की अभियांत्रिकी का उत्कृष्टतम उदाहरण है। ऐसा माना जाता है कि हरेम या कपड़े पहनने का कक्ष और इसकी दीवारों में छोटे छोटे शीशे लगाए गए थे जो भारत में कांच मोजेक की सजावट का सबसे अच्छा नमूना है। शाह महल के दांईं ओर दीवान ए खास है, जो निजी श्रोताओं के लिए है। यहां बने संगमरमर के खम्भों में सजावटी फूलों के पैटर्न पर अर्ध कीमती पत्थर लगाए गए हैं। इसके पास मम्मम ए शाही या शाह बुर्ज को गरमी के मौसम में उपयोग किया जाता था।
दीवान ए आम का उपयोग प्रसिद्ध मयूर सिंहासन को रखने में किया जाता था, जिसे शाहजहां द्वारा दिल्ली राजधानी ले जाने पर इसे लालकिले में ले जाया गया। यह सिंहासन सफेद संगमरमर से बना हुआ उत्कृष्ट कला का नमूना है। नगीना मस्जिद का निर्माण शाहजहां ने कराया था, जो दरबार की महिलाओं के लिए एक निजी मस्जिद थी। मोती मस्जिद आगरा किले की सबसे सुंदर रचना है। यह भवन वर्तमान में दर्शकों के लिए बंद किया गया है। मोती मस्जिद के पास मीना मस्जिद है, जिसे शाहजहां ने केवल अपने निजी उपयोग के लिए निर्मित कराया था।
अजंता और ऐल्लोरा गुफाएं
महाराष्ट्र में औरंगाबाद शहर से लगभग 107 किलो मीटर की दूरी पर अजंता की ये गुफाएं पहाड़ को काट कर विशाल घोड़े की नाल के आकार में बनाई गई हैं। अजंता में 29 गुफालाओं का एक सेट बौद्ध वास्तुकला, गुफा चित्रकला और शिल्प चित्रकला के उत्कृष्तम उदाहरणों में से एक है। इन गुफाओं में चैत्य कक्ष या मठ है, जो भगवान बुद्ध और विहार को समर्पित हैं, जिनका उपयोग बौद्ध भिक्षुओं द्वारा ध्यान लगाने और भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन करने के लिए किया जाता था। गुफाओं की दीवारों तथा छतों पर बनाई गई ये तस्वीरें भगवान बुद्ध के जीवन की विभिन्न घटनाओं और विभिन्न बौद्ध देवत्व की घटनाओं का चित्रण करती हैं। इसमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण चित्रों में जातक कथाएं हैं, जो बोधिसत्व के रूप में बुद्ध के पिछले जन्म से संबंधित विविध कहानियों का चित्रण करते हैं, ये एक संत थे जिन्हें बुद्ध बनने की नियति प्राप्त थी। ये शिल्पकलाओं और तस्वीरों को प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करती हैं जबकि ये समय के असर से मुक्त है। ये सुंदर छवियां और तस्वीरें बुद्ध को शांत और पवित्र मुद्रा में दर्शाती हैं।
एलोरा में गुफाओं के मंदिर और मठ पहाड़ के ऊर्ध्वाधर भाग को काट कर बनाई गई है, जो औरंगाबाद के उत्तर में 26 किलो मीटर की दूरी पर है। बौद्ध धर्म, जैन धर्म और हिन्दुत्व से प्रभावित ये शिल्प कलाएं पहाड़ में विस्त़त पच्चीकारी दर्शाती हैं। एक रेखा में व्यवस्थित 34 गुफाओं में बौद्ध चैत्य या पूजा के कक्ष, विहार या मठ और हिन्दु तथा जैन मंदिर हैं। लगभग 600 वर्ष की अवधि में फैले पांचवीं और ग्यारहवीं शताब्दी ए.डी. के बीच यहां के सबसे प्राचीनतम शिल्प धूमर लेना (गुफा 29) है। सबसे अधिक प्रभावशाली पच्चीकारी बेशक अद्भुत कैलाश मंदिर की है (गुफा 16), जो दुनिया भर में एक ही पत्थर की शिला से बनी हुई सबसे बड़ी मूर्ति है। प्राचीन समय में वेरुल के नाम से ज्ञात इसने शताब्दियों से आज के समय तक निरंतर धार्मिक यात्रियों को आकर्षित किया है।
यूनेस्को द्वारा 1983 से विश्व विरासत स्थल घोषित किए जाने के बाद अजंता और एलोरा की तस्वीरें और शिल्पकला बौद्ध धार्मिक कला के उत्कृष्ट नमूने माने गए हैं और इनका भारत में कला के विकास पर गहरा प्रभाव है। रंगों का रचनात्मक उपयोग और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उपयोग से इन गुफाओं की तस्वीरों में अजंता के अंदर जो मानव और जंतु रूप चित्रित किए गए हैं, उन्हें कलात्मक रचनात्मकता का एक उच्च स्तर माना जा सकता है। एलोरा में एक कलात्मक परम्परा संरक्षित की गई है जो आने वाली पीढियों के जीवन को प्रेरित और समृद्ध करना जारी रखेंगी। न केवल यह गुफा संकुल एक अनोखा कलात्मक सृजन है साथ ही यह तकनीकी उपयोग का भी उत्कृष्ट उदाहरण है। परन्तु ये शताब्दियों से बौद्ध, हिन्दू और जैन धर्म के प्रति समर्पित है। ये सहनशीलता की भावना को प्रदर्शित करते हैं, जो प्राचीन भारत की विशेषता रही है।
आमेर का किला
राजपूत वास्तुकला के एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में यह कच्छवाह शासकों की पुरानी राजधानी था। मूल रूप से यह महल राजा मानसिंह ने बनावाया था और आगे चलकर सवाई जयसिंह ने इस पर कुछ और चीज़ें जोड़ी।
दीवान ए आम या जनता के दरबार का कक्ष महल के अंदर है और दीवान एक खास या निजी श्रोताओं का कमरा और सुख निवास भी महल के अंदर है जहां वातानुकूलन के प्रयोजन हेतु पानी के चैनलों से गुजरती हुई ठण्डी हवा बहती है।
रानियों के निजी कक्षों में जालीदार परदों के साथ खिड़कियां हैं ताकि राज परिवार की महिलाएं शाही दरबार में होने वाली कार्रवाइयों को गोपनीयता पूर्वक देख सकें। यहां जय मंदिर भी है, जो शीश महल के साथ काफी प्रसिद्ध है।
बहाई मंदिर
दिसम्बर 1986 में सार्वजनिक पूजा के लिए इसके समर्पण के समय से भारतीय उप महाद्वीप का यह मातृ मंदिर हजारों लोगों को अपने दर्शन देता है और इसे भारत का सर्वाधिक आतिथ्य पाने वाला भवन बनाता है। सुंदरता और शुद्धता का एक प्रबल संकेत, देवत्व का प्रतिनिधि, कमल के फूल के आकार वाला यह मंदिर भारतीय शिल्पकला में अतुलनीय है। शुद्ध और शांत जल से उठने वाले कमल के फूल का आकार ईश्वर के रूप को प्रकट करता है। यह प्राचीन भारतीय संकेत अनश्वर सुंदरता और सादेपन की संकल्पना को सृजित करने के लिए अपनाया गया था जो जटिल ज्यामिती पर आधारित है और इसका निर्माण ठोस रूप में किया गया है। लोटस टेम्पल प्राचीन संकल्पना, आधुनिक अभियांत्रिकी कौशल तथा वास्तुकलात्मक प्रेरणा का एक अनोखा मिश्रण है।
इसका अत्यंत शांति देने वाला प्रार्थना हॉल और मंदिर के चारों ओर घूमते ढेर सारे दर्शक, जो प्रेरणादायी स्रोत की खोज में यहां जागृत होते हैं और अपने लिए शांति का एक छोटा सा हिस्सा ग्रहण कर पाते हैं। पूरे कक्ष में फैली शांति का आभा मंडल पवित्रता को फैलाता है। कुछ लोगों को यहां मौजूद शांत मौन अच्छा लगता है और कुछ को यहां का दैवी वातावरण। यहां आने वाले लोग मंदिर के गर्भ गृह की शांति और सुंदरता से प्रभावित हो जाते हैं।
बहाई पूजा स्थल का निर्माण भारतीय उप महाद्वीप के अंदर बहाई इतिहास बनाने का एक महत्वपूर्ण अध्याय था। बहाई समुदाय ने अपने पूजा स्थलों को जितना अधिक संभव हो सुंदर और विशिष्ट बनाने का प्रयास किया है। वे बहाउल्ला और उनके बेटे अब्दुल बहा की लेखनी से प्रेरित हुए हैं।
यहां आध्यात्मिक आकांक्षाओं और विश्वव्यापी बहाई समुदाय की मूलभूत धारणाएं हैं, किन्तु विविध धर्मों की इस भूमि पर इसे सबको एक साथ जोड़ने वाले संपर्क के रूप में देखा जाना शुरू हुआ, जिससे ईश्वर, धर्म और मानव जाति की एकात्मकता के लिए सिद्धांतों के प्रभाव में विविध विचारों को एक सौहार्द पूर्ण रूप में लाया गया। इस मंदिर में किसी भी मूर्ति का न होना इस विश्वास को और भी मजबूत बनाता है और इसका अनुकूल प्रत्युत्तर मिलता है। यहां आने वाले दर्शक देवताओं की अनुपस्थिति पर उत्सुकता व्यक्त करते हैं और फिर भी वे यहां की सुंदरता और इमारत की भव्यता से चकित रह जाते हैं। एक प्रारूपिक प्रतिक्रिया इस प्रकार है; 'यहां मौन है और यहां आत्मा बोलती है। यहां आकर ऐसा लगता है मानो आप आत्मा की अवस्था में पहुंच गए हैं, जो स्थिर रहने तथा शांति की अवस्था है।'
लोटस टेम्पल इस शताब्दी के 100 प्रामाणिक कार्यों में से एक है, यह महान सुंदरता का एक सशक्त प्रतीक है जो एक महत्वपूर्ण वास्तुकलात्मक नमूना बनने के लिए एक भक्त गणों के स्थान के रूप में कार्य करते हुए अपने शुद्ध कार्य के परे जाता है। श्रद्धा और मानवीय प्रयास के संकेत के रूप में यह ईश्वर की ओर जाने का मार्ग विस्तारित करता है, यह मंदिर दुनिया भर में प्रशंसाएं प्राप्त कर चुका है। वर्ष 2000 में इस मंदिर को 'ग्लोब आर्ट अकादमी 2000' का पुरस्कार दिया गया है और साथ ही इसे सभी राष्ट्रों, धर्मों तथा सामाजिक वर्गों के लोगों के बीच एकता और भाई चारे की भावना को प्रोत्साहन देने के लिए 20वीं शताब्दी के ताजमहल की सेवा का परिमाण में कहा गया है जिसकी तुलना दुनिया भर के किसी अन्य वास्तुकलात्मक स्मारक से नहीं की जा सकती है।
मंदिर की प्रशंसा में एक प्रसिद्ध भारतीय कवि ने कहा है "वास्तुकला की दृष्टि से, कला की दृष्टि से, नैतिकता की दृष्टि से यह भवन संपूर्णता का आगम है।
बाड़ा इमामबाड़ा, लखनऊ
यह शहर बाड़ा इमामबाड़ा नामक एक ऐतिहासिक द्वार का घर है जहां एक ऐसी अद्भुत वास्तुकला दिखाई देती है जो आधुनिक वास्तुकार भी देख कर दंग रह जाएं। इमामबाड़े का निर्माण नवाब आसफ - उद - दौला ने 1784 में कराया था और इसके संकल्पना कार थे किफायत - उल्ला, जो ताजमहल के वास्तुकार के संबंधी कह जाते हैं। नवाब द्वारा अकाल राहत कार्यक्रम में निर्मित यह किला विशाल और भव्य संरचना है जिसे असाफाई इमामबाड़ा भी कहते हैं। इस संरचना में गोथिक प्रभाव के साथ राजपूत और मुगल वास्तुकलाओं का मिश्रण दिखाई देता है। बाड़ा इमामबाड़ा एक रोचक भवन है। यह न तो मस्जिद है और न ही मकबरा, किन्तु इस विशाल भवन में कई मनोरंजक तत्व अंदर निर्मित हैं। कक्षों का निर्माण और वॉल्ट के उपयोग में सशक्त इस्लामी प्रभाव दिखाई देता है।
बाड़ा इमामबाड़ा वास्तव में एक विहंगम आंगन के बाद बुना हुआ एक विशाल हॉल है, जहां दो विशाल तिहरे आर्च वाले रास्तों से पहुंचा जा सकता है। इमामबाड़े का केन्द्रीय कक्ष लगभग 50 मीटर लंबा और 16 मीटर चौड़ा है। स्तंभहीन इस कक्ष की छत 15 मीटर से अधिक ऊंची है। यह हॉल लकड़ी, लोहे या पत्थर के बीम के बाहरी सहारे के बिना खड़ी विश्व की अपने आप में सबसे बड़ी रचना है। इसकी छत को किसी बीम या गर्डर के उपयोग के बिना ईंटों को आपस में जोड़ कर खड़ा किया गया है। अत: इसे वास्तुकला की एक अद्भुत उपलब्धि के रूप में देखा जाता है। इस भवन में तीन विशाल कक्ष हैं, इसकी दीवारों के बीच छुपे हुए लम्बे गलियारे हैं, जो लगभग 20 फीट मोटी हैं। यह घनी, गहरी रचना भूलभुलैया कहलाती है और इसमें केवल तभी जाना चाहिए जब आपका दिल मजबूत हो। इसमें 1000 से अधिक छोटे छोटे रास्तों का जाल है जिनमें से कुछ के सिरे बंद हैं और कुछ प्रपाती बूंदों में समाप्त होते हैं, जबकि कुछ अन्य प्रवेश या बाहर निकलने के बिन्दुओं पर समाप्त होते हैं। एक अनुमोदित मार्गदर्शक की सहायता लेने की सिफारिश की जाती है, यदि आप इस भूलभुलैया में खोए बिना वापस आना चाहते हैं।
इमामबाड़े की एक और विहित संरचना 5 मंजिला बावड़ी (सीढ़ीदार कुंआ) है, जो पूर्व नवाबी युग की है। शाही हमाम नामक यह बाबड़ी गोमती नदी से जुड़ी है। इसमें पानी से ऊपर केवल दो मंजिलें हैं, शेष तल पानी के अंदर पूरे साल डूबे रहते हैं।
बेसिलिका ऑफ बोम जीसस (गोवा)
बेसिलिका में सेंट फ्रेंसिस जेवियर के पवित्र अवशेष रखे हैं जो गोवा के संरक्षक संत थे और उनकी मृत्यु 1552 में हुई थी। संत के नश्वर अवशेष कोसिमो डी मेडिसी III द्वारा चर्च को उपहार दिए गए, जो ट्यूस केनी के ग्रेंड ड्यू थे। अब यह शरीर कांच के बने हुए वायुरोधी कपन में रखा गया है जिसे सत्रहवीं शताब्दी के फ्लोरेंटाइम शिल्पकार, जीयोवानी बतिस्ता फोगिनी द्वारा चांदी के कास्केट में शिल्पकारी द्वारा रखा गया है। उनकी इच्छा के अनुसार उनके अंतिम अवशेष उनकी मृत्यु के वर्ष में गोवा लाए गए। यह कहा जाता है कि यहां लाते समय संत का शरीर उतना ही ताजा तरीन था जितना कि इसे कफन में रखते समय पाया गया था। यह अद्भुत चमत्कारी घटना दुनिया के हर कोने से लोगों को आने के लिए आकर्षित करती और उनके शरीर के दर्शन प्रत्येक दशक में एक बार कराए जाते हैं जब धार्मिक यात्री आ कर इसे देख सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस संत के पास घाव भरने की चमत्कारी शक्ति थी दुनिया भर से लोग आकर यहां प्रार्थना करते हैं। चांदी का कास्केट लोगों को दिखाने के लिए केवल एक बार नीचे लाया जाता है, अंतिम बार इसे 2004 में दिखाया गया था।
बारीकी से शिल्पकारी द्वारा बनाए गए बेसॉल्ट के नमूने इसे गोवा में सबसे सम़ृद्ध मुख द्वार बनाते हैं। इसकी रूपरेखा में सरल मानकों का उपयोग किया गया है जबकि इसके विस्तार और सज्जा में अतुलनीय बारोक कला झलकती है। संत जेवियर का मकबरा इटालियन कला (संगमरमर का आधार) और हिन्दू शिल्पकारी (चांदी का कास्केट) का अद्भुत मिश्रण है। विस्तारपूर्वक बनाए गए अल्तार लकड़ी, पत्थर, स्वर्ण और ग्रेनाइट में शिल्पकला और पच्चीकारी का सुंदर उदाहरण है। इसके खम्भों पर संगमरमर लगाया हुआ है और इनके अंदर कीमती पत्थर लगाए गए हैं। इस चर्च में संत फ्रेंसिस जेवियर के जीवन को दर्शाने वाले चित्र भी लगाए गए हैं। यहां आकर अतिथि गहरी आध्यात्मिकता और इस स्थान के जादू में डूब जाते हैं। हर वर्ष हज़ारों लोग इस केथेड्रल में आते हैं, विशेष रूप से दिसम्बर माह के दौरान। गोवा दर्शन का महत्व बेसिलिका को देखे बिना अधूरा रह जाता है।
बृहदेश्वर मंदिर - तंजौर
बृहदेश्वर मंदिर भगवान शिव को समर्पित एक भवन है और यहां इन्होंने भगवान का नाम अपने बाद राज राजेश्वरम उडयार रखा है। यह मंदिर ग्रेनाइट से निर्मित है और अधिकांशत: पत्थर के बड़े खण्ड इसमें इस्तेमाल किए गए हैं, ये शिलाखण्ड आस पास उपलब्ध नहीं है इसलिए इन्हें किसी दूर के स्थान से लाया गया था। यह मंदिर एक फैले हुए अंदरुनी प्रकार में बनाया गया है जो 240.90 मीटर लम्बा ( पूर्व - पश्चिम) और 122 मीटर चौड़ा (उत्तर - दक्षिण) है और इसमें पूर्व दिशा में गोपुर के साथ अन्य तीन साधारण तोरण प्रवेश द्वार प्रत्येक पार्श्व पर और तीसरा पिछले सिरे पर है। प्रकार के चारों ओर परिवारालय के साथ दो मंजिला मालिका है।
एक विशाल गुम्बद के आकार का शिखर अष्टभुजा वाला है और यह ग्रेनाइट के एक शिला खण्ड पर रखा हुआ है तथा इसका घेरा 7.8 मीटर और वज़न 80 टन है। उप पित और अदिष्ठानम अक्षीय रूप से रखी गई सभी इकाइयों के लिए सामान्य है जैसे कि अर्धमाह और मुख मंडपम तथा ये मुख्य गर्भ गृह से जुड़े हैं किन्तु यहां पहुंचने के रास्ता उत्तर - दक्षिण दिशा से अर्ध मंडपम से होकर निकालता है, जिसमें विशाल सोपान हैं। ढलाई वाला प्लिंथ विस्तृत रूप से निर्माता शासक के शिलालेखों से भरपूर है जो उनकी अनेक उपलब्धियों का वर्णन करता है, पवित्र कार्यों और मंदिर से जुड़ी संगठनात्मक घटनों का वर्णन करता है। गर्भ गृह के अंदर बृहत लिंग 8.7 मीटर ऊंचा है। दीवारों पर विशाल आकार में इनका चित्रात्मक प्रस्तुतिकरण है और अंदर के मार्ग में दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती और भिक्षाटन, वीरभद्र कालांतक, नटेश, अर्धनारीश्वर और अलिंगाना रूप में शिव को दर्शाया गया है। अंदर की ओर दीवार के निचले हिस्से में भित्ति चित्र चोल तथा उनके बाद की अवधि के उत्कृष्ट उदाहरण है।
उत्कृष्ट कलाओं को मंदिरों की सेवा में प्रोत्साहन दिया जाता था, शिल्पकला और चित्रकला को गर्भ गृह के आस पास के रास्ते में और यहां तक की महान चोल ग्रंथ और तमिल पत्र में दिए गए शिला लेख इस बात को दर्शाते हैं कि राजाराज के शासनकाल में इन महान कलाओं ने कैसे प्रगति की।
सरफौजी, स्थानीय मराठा शासक ने गणपति मठ का दोबारा निर्माण कराया। तंजौर चित्रकला के जाने माने समूह नायकन को चोल भित्ति चित्रों में प्रदर्शित किया गया है।
चारमीनार
यह कुतुब शाही वास्तुकला के कुछ उत्कृष्ट उदाहरणों को प्रदर्शित करता है - जामी मस्जिद, मक्का मस्जिद, तौली मस्जिद और बेशक हैदराबाद का प्रभावशाली चिन्ह, चार मीनार।
चार मीनार 1591 में शहर के अंदर प्लेग की समाप्ति की खुशी में मोहम्मद कुली कुतुब शाह द्वारा बनवाई गई बृहत वास्तुकला का एक नमूना है। शहर की पहचान मानी जाने वाली चार मीनार चार मीनारों से मिलकर बनी एक चौकोर प्रभावशाली इमारत है। इसके मेहराब में हर शाम रोशनी की जाती है जो एक अविस्मरणीय दृश्य बन जाता है।
यह स्मारक ग्रेनाइट के मनमोहक चौकोर खम्भों से बना है, जो उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम दिशाओं में स्थित चार विशाल आर्च पर निर्मित किया गया है। यह आर्च कमरों के दो तलों और आर्चवे की गेलरी को सहारा देते हैं। चौकोर संरचना के प्रत्येक कोने पर एक छोटी मीनार है जो 24 मी. ऊंचाई की है, इस प्रकार यह भवन लगभग 54 मीटर ऊंचा बन जाता है। ये चार मीनारें हैं, जिनके कारण भवन को यह नाम दिया गया है। प्रत्येक मीनार कमल की पत्तियों के आधार की संरचना पर खड़ी है, जो कुतुब शाही भवनों में उपयोग किया जाने वाला तत्कालीन विशेष मोटिफ है।
पहले तल को कुतुब शाही अवधि के दौरान मदरसे के रूप में उपयोग किया जाता था। दूसरे तल पर पश्चिमी दिशा में एक मस्जिद है, जिसका गुम्बद सड़क से ही दिखाई देता है, यदि कुछ दूरी पर खड़े होकर देखा जाए। चार मीनार की छत पर जाकर शहर का एक विहंगम दृश्य दिखाई देता है, जबकि मीनारों के अंदर अत्यधिक भीड़ के कारण कुछ विशेष अतिथियों को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, हैदराबाद वृत की अनुमति से यहां जाने दिया जाता है और वे मीनारों के सबसे ऊपरी सिरे पर जाकर हैदराबाद का दृश्य देख सकते हैं। वर्ष 1889 पर उपरोक्त चारों आर्चवे पर घडियां लगाई गई थीं।
चार मीनार के क्षेत्र में टहलते हुए आप इतिहास के अवशेषों को वर्तमान से मिलता हुआ देखकर निरंतर आश्चर्य कर सकते हैं। चार मीनार के दक्षिण पूर्व की ओर निज़ामिया यूनानी अस्पताल की इमारत स्थित है। पश्चिम में लगभग 50 मीटर की दूरी पर लाड बाजार की दुकानों के बीच एक पुरानी ढहती भूरी दीवार है जो पुराने निज़ाम के जिलाऊ खाना या परेड के मैदान का प्रवेश दर्शाती है। अब इन मैदानों का उपयोग बड़े वाणिज्यिक संकुल के विकास में किया जा रहा है। पुन: बांईं ओर एक सड़क खिलावत कॉम्प्लेक्स (चौ महाल्ला पैलेस) की ओर जाती है। लाड बाजार की सड़क महबूब चौक पर समाप्त होती है जहां 19वीं शताब्दी के दौरान बनाई गई कोमल सफेद मस्जिद पर उसी अवधि के क्लॉक टावर लूम स्थित हैं।
चार मीनार हैदराबाद रेलवे स्टेशन से लगभग 7 किलो मीटर की दूरी पर है। यह हैदराबाद बस स्टेशन से 5 किलो मीटर की दूरी पर है। दोनों शहरों के सभी हिस्सों से उत्कृष्ट निजी परिवहन सुविधा उपलब्ध है। ''आर्क डी ट्राइम्फ ऑफ द इस्ट'' नामक चार मीनार हैदराबाद की पहचान है। शहर जितनी पुरानी ये चार मीनारें इस भवन के साथ पुराने शहर के मध्य में हैं और ये कुतुब शाही युग का हॉल मार्क हैं।
सिटी पैलेस, उदयपुर
सिटी पैलेस पिछोला झील पर स्थित है। महाराणा उदय सिंह ने इस महल का निर्माण आरंभ किया किन्तु आगे आने वाले महाराणाओं ने इस संकुल में कई महल और संरचनाएं जोड़े, इसमें संकल्पना की एक रूपता को बनाए रखा है। महल का प्रवेश हाथी पोल की ओर से है। बड़ी पोल या बड़ा गेट त्रिपोलिया अर्थात तीन प्रवेश द्वारों में से एक है। एक समय यह रिवाज था कि महाराणा इस प्रवेश द्वार के नीचे सोने और चांदी से तौले जाते थे और फिर यह गरीबों में बांट दिया जाता था। अब यहां मुख्य टिकट कार्यलय है। बालकनी, कूपोला और बड़ी बड़ी मीनारें इस महल को झील से एक सुंदर दृश्य के रूप में दर्शाती हैं। सूरज गोखड़ा एक ऐसा स्थान है जहां से महाराणा जनता की बातें सुनते थे, मुख्यत: कठिन परिस्थितियों में रहने वाले लोगों का उत्साह बढ़ाने के लिए उनसे बातें करते थे। मोर चौक एक अन्य स्थान है जिसे दीवारों पर मोर के कांच से बने विविध नीले रंग के टुकड़ों से सजाया गया है।
महल का मुख्य हिस्सा अब एक संग्रहालय के रूप में संरक्षित किया गया है जो कलात्मक वस्तुओं का एक बड़ा और विविध संग्रह प्रदर्शित करता है। सिटी पैलेस के संग्रहालय में जाने के लिए गणेश दहरी से प्रवेश किया जाता है। यह रास्ता आगे राज्य आंगन में जाता है यहीं वह स्थान है जहां महाराणा उदय सिंह उस संत से मिले थे, जिसने उन्हें यहां शहर बनाने के लिए कहा था। एक शस्त्र संग्रहालय में सुरक्षात्मक औजारों और हथियारों के साथ जानलेवा दो धारी तलवार शामिल है। महल के कमरे शीशों, टाइलों और तस्वीरों से सजे हुए हैं। माणक महल या रूबी पैलेस में कांच और दर्पण का सुंदर संग्रह है जबकि कृष्णा विलास में छोटी तस्वीरों का विशाल संग्रह दर्शाया गया है। मोती महल में दर्पण का सुंदर कार्य है और चीनी महल में सभी स्थानों पर सजावटी टाइले लगी हैं। सूर्य चौपड़ में एक विशाल सजावटी सूर्य बना हुआ है जो सूर्य के शासन का प्रतीक है, जिसे मेवाड़ राजवंश का संकेत माना जाता है। बड़ी महल एक केन्द्रीय उद्यान है जिससे शहर का अद्भुत दृश्य दिखाई देता है। जनाना महल या महिला कक्ष में कुछ ओर सुंदर तस्वीरों को देखा जा सकता है, जो आगे चलकर लक्ष्मी चौक मे खुलता है और यह एक सफेद मंडप है।
अलग अलग महलों के अंदर बड़ी चौक के दक्षिण से जाने पर शिव निवास और फतेह प्रकाश पैलेस हैं, अब जिन्हें पोर्टल के रूप में चलाया जाता है। पिछोला झील के किनारे सिटी पैलेस वास्तुकला और राजस्थान के शासकों के अधीन सांस्कृतिक दोहन के उत्कृष्ट उत्पादों के उदाहरण हैं। ये महल पूरी दुनिया के पर्यटकों को आकर्षित करते हैं और अपनी सुंदरता और भव्यता से उन्हें बांध लेते हैं।
दिलवाड़ा मंदिर, माउंटआबू
इस समूह के 5 मठों में से 4 का वास्तुकलात्मक महत्व है। इन्हें सफेद संगमरमर के पत्थर से बनाया गया है, प्रत्येक में दीवार से घिरा एक आंगन है। आंगन के मध्य में मठ है जिसमें देवी देवताओं और ऋष देव के चित्र लगे हैं। आंगन के आस पास ऐसे कई छोटे छोटे मठ है, जहां तीर्थंकर के सुंदर चित्र के साथ पच्चीकारी वाले खम्भे की एक श्रृंखला प्रवेश से आंगन तक आती है। गुजरात के सोलंकी शासकों के मंत्रियों ने 11वीं से 13वीं शताब्दी तक इन मंदिरों का निर्माण कराया।
विमल वसाही यहां का सबसे पुराना मंदिर है, जिसे प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित किया गया है। विमल शाह, गुजरात के सोलंकी शासकों के मंत्री थे, जिन्होंने वर्ष 1031 ए. डी. में इसका निर्माण कराया था। इस मंदिर की मुख्य विशेषता इसकी छत है जो 11 समृद्ध पच्चीकारी वाले संकेन्द्रित वलयों में बनाई गई है। मंदिर की केन्द्रीय छत में भव्य पच्चीकारी की गई है और यह एक सजावटी केन्द्रीय पेंडेंट के रूप में दिखाई देती है। गुम्बद का पेंडेंट नीचे की ओर संकरा होता हुआ एक बिंदु या बूंद बनाता है जो कमल के फूल की तरह दिखाई देता है। यह कार्य का एक अद्भुत नमूना है। यह दैवीय भव्यता को नीचे आकर मानवीय आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रतीक है। छत पर 16 विद्या की देवियों (ज्ञान की देवियों) की मूर्तियां अंकित की गई है।
एक अन्य दिलवाड़ा मंदिर लूना वासाही, वास्तुपाला और तेजपाला हैं, जिन्हें गुजरात के वाघेला तत्कालीन शासकों के मंत्रियों के नाम पर नाम दिया गया है, जिन्होंने 1230 ए. डी. में इनका निर्माण कराया था। बाहर सादे और शालीन होने के बावजूद इन सभी मंदिरों की अंदरुनी सजावट कोमल पच्चीकारी से ढकी हुए हैं। इसका सबसे उल्लेखनीय गुण इसकी चमकदार बारीकी और संगमरमर की कोमलता से की गई शिल्पकारी है और यह इतनी उत्कृष्ट है कि इसमें संगमरमर लगभग पारदर्शी बन जाता है।
दिलवाड़ा के मंदिर दस्तकारी के सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक है। यहां की पच्चीकारी इतनी जीवंत और पत्थर के एक खण्ड से इतनी बारीकी से बनाए गए आकार दर्शाती है कि यह लगभग सजीव हो उठती है। यह मंदिर पर्यटकों का स्वर्ग है और श्रृद्धालुओं के लिए अध्यात्म का केन्द्र है।
सांची में बौद्ध स्तूप
सांची के स्तूप अपने प्रवेश द्वारा के लिए उल्लेखनीय है, इनमें बुद्ध के जीवन से ली गई घटनाओं और उनके पिछले जन्म की बातों का सजावटी चित्रण है। जातक कथाओं में इन्हें बोधि सत्व के नाम से वर्णित किया गया है। यहां गौतम बुद्ध को संकेतों द्वारा निरुपित किया गया है जैसे कि पहिया, जो उनकी शिक्षाओं को दर्शाता है।
सांची को 13वीं शताब्दी के बाद 1818 तक लगभग भुला ही दिया गया था, जब जनरल टेलर, एक ब्रिटिश अधिकारी ने इन्हें दोबारा खोजा, जो आधी दबी हुई और अच्छी तरह संरक्षित अवस्था में था। बाद में 1912 में सर जॉन मार्शल, पुरातत्व विभाग के महानिदेशक में इस स्थल पर खुदाई के कार्य का आदेश दिया।
शूंग के समय में सांची में और इसकी पहाडियों के आस पास अनेक मुख द्वार तैयार किए गए थे। यहां अशोक स्तूप पत्थरों से बड़ा बनाया गया और इसे बालू स्ट्रेड, सीढियों और ऊपर हर्मिका से सजाया गया। चालीस मंदिरों का पुन: निर्माण और दो स्तूपों को खड़ा करने का कार्य भी इसी अवधि में किया गया। पहली शताब्दी बी. सी. में आंध्र - 7 वाहन, जिसने पूर्वी मालवा तक अपना राज्य विस्तारित किया था, ने स्तूप 1 के नक्काशी दार मार्ग को नुकसान पहुंचाया। दूसरी से चौथी शताब्दी ए डी तक सांची तथा विदिशा कुषाणु और क्षत्रपों का राज्य था और इसके बाद यह गुप्त राजवंश के पास चला गया। गुप्त काल के दौरान कुछ मंदिर निर्मित किए गए और इसमें कुछ शिल्पकारी जोडी गई।
सबसे बड़ा स्तूप, जिसे महान स्तूप कहते हैं, चार नक्काशीदार प्रवेश द्वारों से घिरा हुआ है जिसकी चारों दिशाएं कुतुबनुमे की दिशाओं में हैं। इसके प्रवेश द्वार संभवतया 1000 एडी के आस पास बनाए गए। ये स्तूप विशाल अर्ध गोलाकार गुम्बद हैं जिनमें एक केन्द्रीय कक्ष है और इस कक्ष में महात्मा बुद्ध के अवशेष रखे गए थे। सांची के स्तूप के अवशेष बौद्ध वास्तुकला के विकास और तीसरी शताब्दी बी सी 12वीं शताब्दी ए डी के बीच उसी स्थान की शिल्पकला का दर्शाते हैं। इन सभी शिल्पकलाओं की एक सबसे अधिक रोचक विशेषता यह है कि यहां बुद्ध की छवि मानव रूप में कहीं नहीं है। इन शिल्पकारियों में आश्चर्यजनक जीवंतता है और ये एक ऐसी दुनिया दिखाती हैं जहां मानव और जंतु एक साथ मिलकर प्रसन्नता, सौहार्द और बहुलता के साथ रहते हैं। प्रकृति का सुंदर चित्रण अद्भुत है। महात्मा बुद्ध को यहां मानव से परे आकृतियों में सांकेतिक रूप से दर्शाया गया है। वर्तमान में यूनेस्को की एक परियोजना के तहत सांची तथा एक अन्य बौद्ध स्थल सतधारा की आगे खुदाई, संरक्षण तथा पर्यावरण का विकास किया जा रहा है।
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस
यह प्रसिद्ध टर्मिनल ब्रिटिश राष्ट्र मंडल में 19वीं शताब्दी के अंत की ओर रेलवे वास्तुकला की सुंदरता को भी दर्शाता है जिसे उन्नत संरचनात्मक और तकनीकी समाधानों द्वारा पहचाना जाता है। यह मुम्बई के लोगों का एक अविभाज्य अंग है, क्योंकि यह स्टेशन उप शहरी और लंबी दूरी रेलों का स्टेशन है। यह भव्य टर्मिनस भारत में मध्य रेलवे का मुख्यालय है और राष्ट्र के व्यस्ततम स्टेशनों में से एक है। वर्ष 1996 से इसे विक्टोरिया टर्मिनल के नाम से जाना जाता था जो इसे महारानी विक्टोरिया के सम्मान में दिया गया था।
2 जुलाई 2004 को यूनेस्को की विश्व विरासत समिति ने इस 19वीं शताब्दी के अंत में बने भव्य रेलवे वास्तुकलात्मक भवन को विश्व विरासत स्थल नामित किया है। यह टर्मिनस पारम्परिक पश्चिमी और भारतीय वास्तुकला का एक उत्कृष्ट सम्मिलन दर्शाने वाला एक अद्भुत नमूना और भारतीय विरासत की समृद्धि में एक अनोखी विशेषता जोड़ने वाला भवन है।
चोला मंदिर
बृहदेश्वर मंदिर तंजौर में स्थित हैं जो चोल राजाओं की प्राचीन राजधानी है। महाराजा राजा राज चोल ने दसवीं शताब्दी ए. डी. में बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण कराया था और इसकी संकल्पना प्रसिद्ध वास्तुकार सामवर्मा ने की थी। चोल राजाओं को अपने कार्यकाल के दौरान कला का महान संरक्षक माना गया, इसके परिणाम स्वरूप अधिकांश भव्य मंदिर और विशिष्ट ताम्र मूर्तियां दक्षिण भारत में निर्मित की गई।
बृहदेश्वर मंदिर के शिखर पर 65 मीटर विमान पिरामिड के आकार में बनाया गया है, यह एक गर्भ गृह स्तंभ है। इसकी दीवारों पर समृद्ध शिल्पकलात्मक सजावट है। द्वितीय बृहदेश्वर मंदिर संकुल का निर्माण राजेन्द्र - 1 द्वारा 1035 में पूरा किया गया था। इसके 53 मीटर के विमान के तीखे कोने और भव्य ऊपरी गोलाइयों में गतिशीलता का दृश्य तंजौर के सीधे और कठोर स्तंभ के विपरीत है। इसमें एक ही पत्थर से बने द्वारपालों की 6 मूर्तियां प्रवेश द्वार की रक्षा में खड़ी हैं और तांबे से अंदर सुंदर दृश्य बनाए गए हैं।
दो अन्य मंदिर गंगाईकोंडाचोलीश्वरम और एरातेश्वर भी चोल अवधि में निर्मित किए गए और ये वास्तुकला, शिल्पकला, चित्रकला और तांबे की ढलाई की सुंदर उपलब्धियों का दर्शाते हैं।
तंजौर के ये विशाल मंदिर 1003 और 1010 के बीच चोल साम्राज्य के महाराजा, राजाराज के शासन काल में निर्मित किए गए थे जो पूरे दक्षिण भारत में फैला हुआ था और यह इसके आस पास के द्वीपों में था। दो आयतकाकार संलग्नकों से घिरा बृहदेश्वर मंदिर (ग्रेनाइट के खण्डों और आंशिक रूप से ईंटों से निर्मित) पर 13 तल वाला पिरामिडीय स्तंभ है, विमान है जो 61 मीटर ऊंचा है एवं इसके ऊपर बल्ब के आकार का एक पत्थर बना हुआ है। मंदिर की दीवारों पर समृद्ध शिल्पकला सजावट है।
गोवा के गिरजा घर और कॉन्वेंट
बेसिलिका ऑफ बॉम जीसस पूर्वी पणजी (गोवा की राजधानी) से 10 कि.मी. की दूरी पर है, जिसका निर्माण 16वीं शताब्दी में कराया गया था। ''बॉम जीसस'' का अर्थ है शिशु जीसस या अच्छे जीसस। केथोलिक विश्व में प्रख्यात यह कैथेड्रल भारत का पहला अल्प वयस्क बेसिलिका है और इसे भारत में बारोक वास्तुकला का एक सर्वोत्तम उदाहरण माना जाता है। इसकी रूपरेखा में सरल पुनर्जीवन मानक दर्शाए गए हैं जबकि इसका विस्तार और सजावट अतुलनीय बारोक है। यह सुंदर संरचना, जिसमें सफेद संगमरमर लगाया गया है और जिसे भित्ति चित्रों और अंदरुनी शिल्प कला से सजाया गया है।
बेसिलिका में सेंट फ्रेंसिस जेवियर के पवित्र अवशेष रखे हैं जो गोवा के संरक्षक संत थे और उनकी मृत्यु 1552 में हुई थी। संत के नश्वर अवशेष कोसिमो डी मेडिसी III द्वारा चर्च को उपहार दिए गए, जो ट्यूस केनी के ग्रेंड ड्यू थे। अब यह शरीर कांच के बने हुए वायुरोधी कपन में रखा गया है जिसे सत्रहवीं शताब्दी के फ्लोरेंटाइम शिल्पकार, जीयोवानी बतिस्ता फोगिनी द्वारा चांदी के कास्केट में शिल्पकारी द्वारा रखा गया है। उनकी इच्छा के अनुसार उनके अंतिम अवशेष उनकी मृत्यु के वर्ष में गोवा लाए गए। यह कहा जाता है कि यहां लाते समय संत का शरीर उतना ही ताजा तरीन था जितना कि इसे कफन में रखते समय पाया गया था।
संत जेवियर का मकबरा इटालियन कला (संगमरमर का आधार) और हिन्दू शिल्पकारी (चांदी का कास्केट) का अद्भुत मिश्रण है। विस्तारपूर्वक बनाए गए अल्तार लकड़ी, पत्थर, स्वर्ण और ग्रेनाइट में शिल्पकला और पच्चीकारी का सुंदर उदाहरण है। इसके खम्भों पर संगमरमर लगाया हुआ है और इनके अंदर कीमती पत्थर लगाए गए हैं। इस चर्च में संत फ्रेंसिस जेवियर के जीवन को दर्शाने वाले चित्र भी लगाए गए हैं।
सैंट कैथेड्रल एक अन्य धार्मिक भवन है, जिसे गोवा में 16वीं शताब्दी में पुर्तगाल शासन के अधीन रोमन केथेलिको द्वारा निर्मित किया गया था। कैथेड्रल एशिया का सबसे बड़ा गिरजाघर, जिसे अलेक्सेंड्रिया के सेंट केथेरिन को समर्पित किया गया है, जिनका आर्हद दिवस 1510 में है। अल्फोंसो अल्बूकर्क ने मुस्लिम सेना को पराजित किया और गोवा शहर पर कब्ज़ा कर लिया। इस प्रकार इसे सेंट केथेरिन का कैथेड्रल भी कहा जाता है।
इस प्रभावशाली भवन का निर्माण राजा डोम सेबास्टियो (1557-78) के कार्यकाल के दौरान 1562 में आरंभ हुआ और अंतत: 1619 में पूरा हुआ। इसे 1640 में पुन: प्रतिष्ठित किया गया।
इस गिरजाघर की लंबाई 250 फीट और चौड़ाई 181 फीट है। इसके सामने का हिस्सा 115 फीट ऊंचा है। यह भवन पुर्तगाली - गोथिक शैली का है जिसमें टस्कन बाह्य सज्जा और कोरिनथियन अंदरुनी सज्जा। कैथेड्र की बाह्य सज्जा अपनी शैली के सादे पन के लिए उल्लेखनीय जबकि इसकी अंदरुनी सज्जा अपनी भव्यता से दर्शकों का मनमोह लेती है।
कैथेड्रल का मुख्य भाग अलेक्सेंड्रिया के संत केथेरिन को समर्पित हैं और इसके दूसरी ओर लगी पुरानी तस्वीरें उनके जीवन और शहीद हो जाने दृश्य दर्शाते हैं। इसके दांईं ओर क्रॉस ऑफ मिरेकल के चेपल को दर्शाया गया है।
असिसी के सेंट फ्रांसीस के गिरजाघर और कॉन्वेंट, लेडी ऑफ रोज़री के गिरजाघर; संत अगस्टाइन के गिरजाघर गोवा के अन्य प्रमुख गिरजाघरों और कॉन्वेंट में से एक हैं।
एलिफेंटा की गुफाएं
एलिफेंटा की गुफाएं 7 गुफाओं का सम्मिश्रण हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण है महेश मूर्ति गुफा। गुफा के मुख्य हिस्से में पोर्टिकों के अलावा तीन ओर से खुले सिरे हैं और इसके पिछली ओर 27 मीटर का चौकोर स्थान है और इसे 6 खम्भों की कतार से सहारा दिया जाता है। "द्वार पाल" की विशाल मूर्तियां अत्यंत प्रभावशाली हैं।
इस गुफा में शिल्प कला के कक्षो में अर्धनारीश्वर, कल्याण सुंदर शिव, रावण द्वारा कैलाश पर्वत को ले जाने, अंधकारी मूर्ति और नटराज शिव की उल्लेखनीय छवियां दिखाई गई हैं।
इस गुफा संकुल को यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत का दर्जा दिया गया है।
फतेहपुर सीकरी
एक वर्ष के अंदर अधिकांश निर्माण कार्य पूरा हो गया और अगले कुछ वर्षों के अंदर सुयोजना बद्ध प्रशासनिक, आवासीय और धार्मिक भवन अस्तित्व में आए।
जामा मस्जिद संभवतया पहला भवन था, जो निर्मित किया गया। इसके शिला लेख एएच 979 ( एडी 1571-72) दर्शाते हैं कि इसका निर्माण इस तिथि को पूरा हुआ। बुलंद दरवाजा लगभग 5 वर्ष बाद जोड़ा गया। अन्य महत्वपूर्ण भवनों में शेख सलीम चिश्ती की दरगाह, नौबत-उर-नक्कारखाना (ड्रम हाउस), टकसाल (मिंट), कारखाना (शाही वर्कशॉप), खजाना (राजकोष), हकीम का घर, दीवान-ए-आम (जनता के लोगों के लिए बनाया गया कक्ष), मरियम का निवास, जिसे सुनहरा मकान (गोल्डन हाउस) भी कहते हैं, जोधा बाई का महल, बीरबल का निवास आदि शामिल हैं।
गेटवे ऑफ इंडिया
गेटवे ऑफ इंडिया की आशाशिला बम्बई (मुम्बई) के राज्य पाल द्वारा 31 मार्च 1913 को रखी गई थी। यह स्मारक 26 मीटर ऊंचा है और इसने 4 मीनारें हैं और पत्थरों पर खोदी गई बारीक पच्चीकारी है। इसका केवल गुम्बद निर्मित करने में 21 लाख रु. का खर्च आया था। यह भारतीय - सार्सैनिक शैली में निर्मित भवन है, जबकि इसकी वास्तुकला में गुजराती शैली का भी कुछ प्रभाव दिखाई देता है। यह संरचना अपने आप में ही अत्यंत मनमोहक और पेरिस में स्थित आर्क डी ट्रायम्फ की प्रतिकृति है।
पिछले समय में गेटवे ऑफ इंडिया का उपयोग पश्चिम से आने वाले अतिथियों के लिए आगमन बिन्दु के रूप में होता था। विडम्बना यह है कि जब 1947 में ब्रिटिश राज समाप्त हुआ तो यह उप निवेश का प्रतीक भी एक प्रकार का स्मृति लेख बन गया, जब ब्रिटिश राज का अंतिम जहाज यहां से इंग्लैंड की ओर रवाना हुआ। आज यह उपनिवेश काल का संकेत पूरी तरह से भारतीय कृत हो गया है, जिसमें ढेरों स्थानीय पर्यटक और नागरिक आते हैं। मुम्बई का यह स्थान शहर के दर्शनीय स्थलों में से एक है।
गेटवे विशाल अरब सागर की ओर बनाया गया है, जो मुम्बई शहर के एक अन्य आकर्षण मेरिन ड्राइव से जुड़ा है, यह एक सड़क है जो समुद्र के समानांतर चलती है। यह भव्य स्मारक रात के समय देखने योग्य होता है जब इसकी विशाल भव्यता समुद्र की पृष्ठभूमि में दिखाई देती है। इसमें प्रतिवर्ष दुनिया भर के लाखों लोग आते हैं और यह मुम्बई के लोगों की जिंदगी का एक महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि यह शहर की संस्कृति को परिभाषित करता है, जो ऐतिहासिक और आधुनिक सांस्कृतिक परिवेश का अनोखा संगम है।
जिंजी किला
ऊंची दीवारों से घिरा हुआ यह किला रणनीतिक रूप से इस प्रकार बनाया गया है कि दुश्मन इस पर आक्रमण करने से पहले दो बार जरूरत सोचेगा। यह तीन स्तरों वाले मजबूत प्रवेश से सुरक्षित है, जो अंदर के दरबार को भी उतनी ही सुरक्षा प्रदान करता है। राजगिरि पर इसके किसी भी दुश्मन ने इतनी आसानी से आक्रमण नहीं किया है। आज भी यहां के राज दरबार तक दो घण्टे की चढ़ाई के बाद पहुंचा जा सकता है, जो एक थका देने वाला कार्य है, किन्तु इसे देखना एक अच्छा अनुभव है।
महान ऐतिहासिक रुचि वाला स्थल, जिंजी अब एक अभेद्य दुर्ग नहीं रहा, यह तमिलनाडु पर्यटन क्षेत्र का एक सर्वाधिक रोचक स्थल बन गया है।
गोलकोंडा किला
भारत का सर्वाधिक असाधारण स्मारक माना जाने वाला गोलकोंडा किला अपने समय की ''नवाबी'' संस्कृति का अद्भुत चित्रण करता है। ''चरवाहे की पहाड़ी'' या ''गोला कोंडा'', जिसे तेलुगु में लोकप्रिय रूप से यह नाम दिया गया है और इसके साथ एक रोचक इतिहास जुड़ा हुआ है। एक दिन एक चरवाहा बालक पहाड़ी पर एक मूर्ति पा गया, जिसे मंगलावरम कहा गया था। यह समाचार तत्कालीन शासक काकतिया राजा तक पहुंचा। राजा ने उस पवित्र स्थान के चारों ओर मिट्टी का एक किला बनवा दिया और उनके उत्तरवर्तियों ने भी इस प्रथा को जारी रखा।
आगे चलकर गोलकोंडा का किला बहमनी राजवंश के अधिकार में आ गया। कुछ समय बाद कुतुब शाही राजवंश ने इस पर कब्जा किया और गोलकोंडा को अपनी राजधानी बनाया। गोलकोंडा के किले में मोहम्मद कुल कुतुब शाह के समय की अधिकांश भव्यता अभी बची हुई है। इसके पश्चात की पीढियों ने गोलकोंडा किले को कई तरह से संपुष्ट किया और इसके अंदर एक सुंदर शहर का निर्माण कराया। गोलकोंडा किले को 17वीं शताब्दी तक हीरे का एक प्रसिद्ध बाजार माना जाने लगा। इससे दुनिया को कुछ सर्वोत्तम ज्ञात हीरे मिले, जिसमें ''कोहिनूर'' शामिल है। इसकी वास्तुकला के बारीक विवरण और धुंधले होते उद्यान, जो एक समय हरे भरे लॉन और पानी के सुंदर फव्वारों से सज्जित थे, आपको उस समय की भव्यता में वापस ले जाते हैं। गोलकोंडा किले की भव्य वास्तुकला चिर स्थायी है और यह बात प्रवेश द्वार पर बने सुंदर और मजबूत लोहे की बड़ी छड़ों से स्पष्ट हो जाती है जो इस पर आक्रमण करने वाली सेनाओं को इससे टकराने से भय पैदा करती हैं। इस प्रवेश द्वार के आगे पोर्टिको है, जिसे बाला हिस्सार गेट कहते हैं और यह प्रवेश द्वार अत्यंत भव्य है।
आप यहां आकर आधुनिक श्रव्य प्रणाली के प्रभाव से चकित रह जाएंगे जो इस प्रकार बनाई गई है कि हाथ से बजाई गई ताली की आवाज़ बाला हिस्सार गेट से गूंजते हुए किले में सुनाई देती है। वास्तुकारों की अद्भुत योजना यहां हवा के आने जाने की दिशा से स्पष्ट हो जाती है, जो इस प्रकार डिज़ाइन की गई है कि यहां ठण्डी ताजा हवा के झोंके सदा बहते रहते हैं चाहे बाहर आंध्र प्रदेश की तीखी नम गर्मी जारी हो।
यहां स्थित रॉयल नगीना गार्डन भी एक देखने लायक स्थान है, साथ ही अंगरक्षकों का बैरक और पानी के तीन तालाब जो 12 मीटर गहरे हैं, जो एक बार बनने के बाद किले में पानी के आंतरिक स्रोत रहे। किले की शानदार भव्यता यहां का दरबार हॉल देख कर समझी जा सकती है, जो हैदराबाद और सिकंदराबाद के दोनों शहरों पर नजर रखते हुए पहाड़ी की छोटी पर बनाया गया है। यहां एक हज़ार सीढियां चढ़ कर पहुंचा जा सकता है और यदि आप यहां चढ़ने का काम पूरा कर लेते हैं तो आपको नीचे प्रसिद्ध चार मीनार का सुंदर दृश्य दिखाई देता है।
गोलकोंडा किले के बाहर पत्थरीली पहाडियों पर तारामती गान मंदिर और प्रेमनाथ नृत्य मंदिर नामक दो अलग अलग मंडप हैं, जहां प्रसिद्ध बहनें तारामती और प्रेममती रहती थीं। वे कला मंदिर नामक दो मंजिला इमारत के शीर्ष पर बने एक गोलाकार मंच पर नृत्य कला का प्रदर्शन करती थीं, जो राजा के दरबार से दिखाई देता था। कला मंदिर की भव्यता को दोबारा जीवित करने के प्रयास जारी हैं जो अब कुछ भग्नावस्था में पहुंच गया है। इसके लिए दक्षिण कला महोत्सव का वार्षिक आयोजन किया जाता है। सुंदर गुम्बद वाला कुतुबशाही गुम्बद किले के पास इस्लामी वास्तुकला का अनोखा नमूना प्रस्तुत करता है।
किले का एक आकर्षण यहां होने वाला ध्वनि और प्रकाश का कार्यक्रम है जिसमें गोलकोंडा के इतिहास को सजीव रूप में प्रस्तुत किया जाता है। दृश्य और श्रव्य प्रभावों के विहंगम प्रस्तुतिकरण से गोलकोंडा की कहानी आपको कई सदियों पुराने भव्य इतिहास में ले जाती है। यह कार्यक्रम सप्ताह के एक दिन छोड़कर अगले दिन के अंतराल पर अंग्रेजी और तेलुगु में प्रस्तुत किया जाता है। गोलकोंडा का किला भारतीय सेना की गोलकोंडा सशस्त्र सेना के मौजूदा समय में गर्व से खड़ा है, जो आज यहां उपस्थित है।
स्वर्ण मंदिर
गुरु अर्जन साहिब, पांचवें नानक, ने सिक्खों की पूजा के एक केन्द्रीय स्थल के सृजन की कल्पना की और उन्होंने स्वयं श्री हरमंदिर साहिब की वास्तुकला की संरचना की। पहले इसमें एक पवित्र तालाब (अमृतसर या अम़ृत सरोवर) बनाने की योजना गुरू अमरदास साहिब द्वारा बनाई गई थी, जो तीसरे नानक कहे जाते हैं किन्तु गुरू रामदास साहिब ने इसे बाबा बुद्ध जी के पर्यवेक्षण में निष्पादित किया। इस स्थल की भूमि मूल गांवों के जमींदारों से मुफ्त या भुगतान के आधार पर पूर्व गुरू साहिबों द्वारा अर्जित की गई थी। यहां एक कस्बा स्थापित करने की योजना भी बनाई गई थी। अत: सरोवर पर निर्माण कार्य के साथ कस्बों का निर्माण भी इसी के साथ 1570 में शुरू हुआ। दोनों परियोजनाओं का कार्य 1577 ए.डी. में पूरा हुआ था।
गुरू अर्जन साहिब ने लाहौर के मुस्लिम संत हजरत मियां मीर जी द्वारा इसकी आधारशिला रखवाई जो दिसम्बर 1588 में रखी गई। इसके निर्माण कार्य का पर्यवेक्षण गुरू अर्जन साहिब ने स्वयं किया और बाबा बुद्ध जी, भाई गुरूदास जी, भाई सहलो जी और अन्य कई समर्पित सिक्ख बंधुओं के द्वारा उन्हें सहायता दी गई।
ऊंचे स्तर पर ढांचे को खड़ा करने के विपरीत, गुरू अर्जन साहिब ने इसे कुछ निचले स्तर पर बनाया और इसे चारों ओर से खुला रखा। इस प्रकार उन्होंने एक नए धर्म सिक्ख धर्म का संकेत सृजित किया। गुरू साहिब ने इसे जाति, वर्ण, लिंग और धर्म के आधार पर किसी भेदभाव के बिना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुगम्य बनाया।
इसका निर्माण कार्य सितम्बर 1604 में पूरा हुआ। गुरू अर्जन साहिब ने नव सृजित गुरू ग्रंथ साहिब (सिक्ख धर्म की पवित्र पुस्तक) की स्थापना श्री हरमंदिर साहिब में की तथा बाबा बुद्ध जी को इसका प्रथम ग्रंथी अर्थात गुरू ग्रंथ साहिब का वाचक नियुक्त किया। इस कार्यक्रम के बाद "अथ सत तीरथ" का दर्जा देकर यह सिक्ख धर्म का एक अपना तीर्थ बन गया।
श्री हरमंदिर साहिब का निर्माण सरोवर के मध्य में 67 वर्ग फीट के मंच पर किया गया है। यह मंदिर अपने आप में 40.5 वर्ग फीट है। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चारों दिशाओं में इसके दरवाज़े हैं। दर्शनी ड्योढ़ी (एक आर्च) इसके रास्ते के सिरे पर बनी हुई है। इस आर्च का दरवाजे का फ्रेम लगभग 10 फीट ऊंचा और 8 फीट 4 इंच चौड़ा है। इसके दरवाजों पर कलात्मक शैली ने सजावट की गई है। यह एक रास्ते पर खुलता है जो श्री हरमंदिर साहिब के मुख्य भवन तक जाता है। यह 202 फीट लंबा और 21 फीट चौड़ा है।
इसका छोटा सा पुल 13 फीट चौड़े प्रदक्षिणा (गोलाकार मार्ग या परिक्रमा) से जोड़ा है। यह मुख्य मंदिर के चारों ओर घूमते हुए "हर की पौड़ी" तक जाता है। "हर की पौड़ी" के प्रथम तल पर गुरू ग्रंथ साहिब की सूक्तियां पढ़ी जा सकती हैं।
इसके सबसे ऊपर एक गुम्बद अर्थात एक गोलाकार संरचना है जिस पर कमल की पत्तियों का आकार इसके आधार से जाकर ऊपर की ओर उल्टे कमल की तरह दिखाई देता है, जो अंत में सुंदर "छतरी" वाले एक "कलश" को समर्थन देता है।
इसकी वास्तुकला हिन्दु तथा मुस्लिम निर्माण कार्य के बीच एक अनोखे सौहार्द को प्रदर्शित करता है तथा इसे विश्व के सर्वोत्तम वास्तुकलात्मक नमूने के रूप में माना जा सकता है। यह कई बार कहा जाता है कि इस वास्तुकला से भारत के कला इतिहास में सिक्ख प्रदाय की एक स्वतंत्र वास्तुकला का सृजन हुआ है। यह मंदिर कलात्मक सौंदर्य और गहरी शांति का उल्लेखनीय संयोजन है। यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक सिक्ख का हृदय यहां बसता है।
हम्पी में स्मारकों का समूह
विजय नगर शहर के स्मारक विद्या नारायण संत के सम्मान में विद्या सागर के नाम से भी जाने जाते हैं, जिन्होंने इसे 1336 - 1570 ए. डी. के बीच हरीहर - 1 से सदाशिव राय की अवधियों में निर्मित कराए। इस राजवंश के महानतम शासक कृष्ण देव राय (एडी 1509 - 30) द्वारा बड़ी संख्या में शाही इमारतें बनवाई गई।
इस अवधि में हिन्दू धार्मिक कला, वास्तुकला को एक अप्रत्याशित पैमाने पर दोबारा उठते हुए देखा गया। हम्पी के मंदिरों को उनकी बड़ी विमाओं, फूलदार सजावट, स्पष्ट और कोमल पच्चीकारी, विशाल खम्भों, भव्य मंडपों और मूर्ति कला तथा पारम्परिक चित्र निरुपण के लिए जाना जाता है, जिसमें रामायण और महाभारत के विषय शामिल है।
हम्पी में स्थित विठ्ठल मंदिर विजय नगर शैली का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। देवी लक्ष्मी, नरसिंह और गणेश की एक पत्थर से बनी मूर्तियां अपनी विशालता और भव्यता के लिए उल्लेखनीय है। यहां स्थित कृष्ण मंदिर, पट्टाभिराम मंदिर, हजारा राम चंद्र और चंद्र शेखर मंदिर भी यहां के जैन मंदिर हैं जो अन्य उदाहरण हैं। हम्पी के अधिकांश मंदिरों में कई स्तर वाले मंडपों के बगल में व्यापक रूप से फैले बाजार हैं।
धार्मिक प्रवेश द्वारा के बीच जनाना संलग्नक का उल्लेख भी आवश्यक है जिसमें रानी के महल का विशालकाय पत्थरीला तहखाना और एक सजावटी मंडप ''कमल महल'' हैं जो यहां के ऐश्वर्य पूर्ण अंत:पुर की कहानी कहती हैं। ऊंची इमारतों के कोने वाले स्तंभ, धन नायक के संलग्नक (खजाना) महा नवमी दिवा में सुंदर शिल्पकारी के पैनल, कई प्रकार के तालाब और पोखर, मंडप, हाथी का अस्तबल और खम्भे युक्त मंडपों की कतारें हैं, जो हम्पी के महत्वपूर्ण वास्तुकलात्मक अवशेष हैं।
हम्पी ने हाल में की गई खुदाई से बड़ी संख्या में संकुलों और अनेक मंचों के तहखाना को सामने लाया गया है। इसमें पाई गई रोचक जानकारियों में पत्थर की बनी हुई छवियां, टेराकोटा से बनी सुंदर वस्तुएं और स्टूको आकृतियां हम्पी के महल में बिखरी पड़ी हैं।
इसके अतिरिक्त सोने और तांबे के सिक्के, घरेलू बर्तन, चौकोर सीढियों वाले सरोवर महा नवमी दिबा के दक्षिण पश्चिम में हैं और साथ ही यहां सिरामिक की बड़ी संख्या पाई गई है। यहां दूसरी और तीसरी शताब्दी ए. डी. के पोर्सलेन से बने विभिन्न प्रकार के बर्तन और बोध शिल्पकला के खुदाई के नमूने भी सामने आए।
ग्वालियर का किला
महाबलीपुरम में स्मारकों का समूह
तट मंदिर
महाबलीपुरम का तट मंदिर चेन्नई के 50 किलो मीटर दक्षिण में स्थित एक तटीय गांव है, जिसका निर्माण राज सिंह के कार्यकाल में सातवीं शताब्दी के दौरान किया गया था और वे पल्लव कला के पुष्पों का चित्रण करते थे। इन मंदिरों में एक दम ताजा कर देने वाले त्रुटि रहित शिल्प हैं जो ग्रेंडियोज़ द्रविणियन वास्तुकला से भिन्न है और जिसमें सुरक्षात्मक ब्रेक वॉटर के पीछे तरंगों पर स्तंभ बनाए जाते थे। सुंदर बहुभुजी गुम्बद वाले इस मंदिर में भगवान विष्णु और शिव का निवास है। ये सुंदर मंदिर हवा और समुद्र के झोंकों से परिपूर्ण है और इन्हें यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत घोषित किया गया है।'रथ' गुफा मंदिर
महाबलीपुरम का भव्य 'रथ' गुफा मंदिर सातवीं और आठवीं शताब्दियों में पल्लव राजा नरसिंह द्वारा निर्मित कराया गया था। इस मंदिर की पत्थर को काट कर की गई शिल्पकारी की सुंदरता पूर्व पल्लव शासकों की कलात्मक रुचि को दर्शाती है। इसे विशेष रूप से इसमें बनाए गए रथों के लिए जाना जाता है (यह मंदिर रथ के आकार का है), मंडप (वन गुफा) के रूप में है जिसमें खुली हवा के विशाल द्वार हैं जिन्हें 'गंगा के उत्तराधिकारी' कहा जाता है और इसमें भगवान शिव की महिमा के हजारों शिल्प बनाए गए हैं।महाबलीपुरम में आठ रथ हैं जिनमें से पांच को महाभारत के पात्र पांच पाण्डवों और एक द्रौपदी के नाम पर नाम दिया गया है। इन पांच रथों को धर्मराज रथ, भीम रथ, अर्जुन रथ, द्रौपदी रथ, नकुल और सहदेव रथ के नाम से जाना जाता है। इनका निर्माण बौद्ध विहास शैली तथा चैत्यों के अनुसार किया गया है अपरिष्कृत तीन मंजिल वाले धर्मराज रथ का आकार सबसे बड़ा है। द्रौपदी का रथ सबसे छोटा है और यह एक मंजिला है और इसमें फूस जैसी छत है। अर्जुन और द्रौपदी के रथ क्रमश: शिव और दुर्गा को समर्पित हैं।
हवा महल
जैसलमेर का किला
जामा मस्जिद (दिल्ली)
इसे मस्जिद - ए - जहानुमा भी कहते हैं, जिसका अर्थ है विश्व पर विजय दृष्टिकोण वाली मस्जिद। इसे बादशाह शाहजहां ने एक प्रधान मस्जिद के रूप में बनवाया था। एक सुंदर झरोखेनुमा दीवार इसे मुख्य सड़क से अलग करती है।
पुरानी दिल्ली के प्राचीन कस्बे में स्थित यह स्मारक 5000 शिल्पकारों द्वारा बनाया गया था। यह भव्य संरचना भौ झाला पर टिकी है जो शाहजहांना बाद में मुगल राजधानी की दो पहाडियों में से एक है। इसके पूर्व में यह स्मारक लाल किले की ओर स्थित है और इसके चार प्रवेश द्वार हैं, चार स्तंभ और दो मीनारें हैं। इसका निर्माण लाल सेंड स्टोन और सफेद संगमरमर की समानांतर खड़ी पट्टियों पर किया गया है। सफेद संगमरमर के बने तीन गुम्बदों में काले रंग की पट्टियों के साथ शिल्पकारी की गई है।
यह पूरी संरचना एक ऊंचे स्थान पर है ताकि इसका भव्य प्रवेश द्वार आस पास के सभी इलाकों से दिखाई दे सके। सीढियों की चौड़ाई उत्तर और दक्षिण में काफी अधिक है। चौड़ी सीढियां और मेहराबदार प्रवेश द्वार इस लोकप्रिय मस्जिद की विशेषताएं हैं। मुख्य पूर्वी प्रवेश द्वार संभवतया बादशाहों द्वारा उपयोग किया जाता था जो सप्ताह के दिनों में बंद रहता था। पश्चिमी दिशा में मुख्य प्रार्थना कक्ष में ऊंचे ऊंचे मेहराब सजाए गए हैं जो 260 खम्भों पर है और इनके साथ लगभग 15 संगमरमर के गुम्बद विभिन्न ऊंचाइयों पर है। प्रार्थना करने वाले लोग यहां अधिकांश दिनों पर आते हैं किन्तु शुक्रवार तथा अन्य पवित्र दिनों पर संख्या बढ़ जाती है। दक्षिण मीनारों का परिसर 1076 वर्ग फीट चौड़ा है जहां एक बार में 25,000 व्यक्ति बैठ कर नमाज़ अदा कर सकते हैं।
यह कहा जाता है कि बादशाह शाहजहां ने जामा मस्जिद का निर्माण 10 करोड़ रु. की लागत से कराया था और इसे आगरा में स्थित मोती मस्जिद की एक अनुकृति कहा जा सकता हैं। इसमें वास्तुकला शैली के अंदर हिन्दु और मुस्लिम दोनों ही तत्वों का समावेश है।
जीवन का एक संपूर्ण मार्ग इस पुराने ऐतिहासिक स्मारक की छाया में, इसकी सीढियों पर, इसकी संकरी गलियों में भारत के लघु ब्रह्मान्ड का एक सारतत्व मिलता है जो भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की कहानी कहता है।
हिल पैलेस संग्रहालय, तिरुपुणिथुरा (केरल)
यहां 200 से अधिक बर्तनों और सिरामिक पात्रों के दुर्लभ नमूने भी प्रदर्शित किए गए हैं जो जापान और चीन से लाए गए हैं, कुडाकालू (मकबरे का पत्थर) थोपी कालू (हुड स्टोन), मेनहिर, ग्रेनाइट, लेटराइट स्मारक, पहाड़ को काट कर बनाए गए पत्थर युग के हथियार, लकड़ी के बने मंदिर के मॉडल, सिंधु घाटी सभ्यता के मोहन जोदाड़ों और हड़प्पा की वस्तुओं के प्लास्टर से बने मॉडल भी यहां हैं। इस संग्रहालय में समकालीन कला की एक दीर्घा भी है।
इंडिया गेट
शहर के महत्वपूर्ण स्मारक, इंडिया गेट 80,000 से अधिक भारतीय सैनिकों की याद में निर्मित किया गया था जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में वीरगति पाई थी। यह स्मारक 42 मीटर ऊंची आर्च से सज्जित है और इसे प्रसिद्ध वास्तुकार एडविन ल्यूटियन्स ने डिजाइन किया था। इंडिया गेट को पहले अखिल भारतीय युद्ध स्मृति के नाम से जाना जाता था। इंडिया गेट की डिजाइन इसके फ्रांसीसी प्रतिरूप स्मारक आर्क - डी - ट्रायोम्फ के समान है।
यह इमारत लाल पत्थर से बनी हैं जो एक विशाल ढांचे के मंच पर खड़ी है। इसके आर्च के ऊपर दोनों ओर इंडिया लिखा है। इसके दीवारों पर 70,000 से अधिक भारतीय सैनिकों के नाम शिल्पित किए गए हैं, जिनकी याद में इसे बनाया गया है। इसके शीर्ष पर उथला गोलाकार बाउलनुमा आकार है जिसे विशेष अवसरों पर जलते हुए तेल से भरने के लिए बनाया गया था।
इंडिया गेट के बेस पर एक अन्य स्मारक, अमर जवान ज्योति है, जिसे स्वतंत्रता के बाद जोड़ा गया था। यहां निरंतर एक ज्वाला जलती है जो उन अंजान सैनिकों की याद में है जिन्होंने इस राष्ट्र की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया।
इसके आस पास हरे भरे मैदान, बच्चों का उद्यान और प्रसिद्ध बोट क्लब इसे एक उपयुक्त पिकनिक स्थल बनाते हैं। इंडिया गेट के फव्वारे के पास बहती शाम की ठण्डी हवा ढेर सारे दर्शकों को यहां आकर्षित करती हैं। शाम के समय इंडिया गेट के चारों ओर लगी रोशनियों से इसे प्रकाशमान किया जाता है जिससे एक भव्य दृश्य बनता है। स्मारक के पास खड़े होकर राष्ट्रपति भवन का नज़ारा लिया जा सकता है। सुंदरतापूर्वक रोशनी से भरे हुए इस स्मारक के पीछे काला होता आकाश इसे एक यादगार पृष्ठभूमि प्रदान करता है। दिन के प्रकाश में भी इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन के बीच एक मनोहारी दृश्य दिखाई देता है।
हर वर्ष 26 जनवरी को इंडिया गेट गणतंत्र दिवस की परेड का गवाह बनता है जहां आधुनिकतम रक्षा प्रौद्योगिकी के उन्नयन का प्रदर्शन किया जाता है। यहां आयोजित की जाने वाली परेड भारत देश की रंगीन और विविध सांस्कृतिक विरासत की झलक भी दिखाती है, जिसमें देश भर से आए हुए कलाकार इस अवसर पर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।
जंतर मंतर दिल्ली
अपने शासक के संरक्षक में उन्होंने उस समय मौजूद खगोल विज्ञान की तालिकाओं में सुधार किया और अधिक विश्वसनीय उपकरणों की सहायता से एक ज्योतिष कैलेण्डर को अद्यतन किया। दिल्ली का जंतर मंतर उन पांच वेधशालाओं में से प्रथम है जिसे विशाल मेस्नरी उपकरणों के साथ उन्होंने निर्मित कराया।
इस वेधशाला में सम्राट यंत्र है, जो समान घंटों में सूर्य की घड़ी है। यहां स्थित राम यंत्र ऊंचाई संबंधी कोणों को पढ़ने के लिए है; जय प्रकाश यंत्र सूर्य की स्थिति को जानने तथा अन्य नक्षत्रीय पिंडों की स्थिति को सुनिश्चित करने के लिए है और यहां बनाया गया मिश्र यंत्र चार वैज्ञानिक उपकरणों का एक संयोजन है।
कामाख्या मंदिर
यह मंदिर गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से कुछ किलो मीटर की दूरी पर है और यह पूरे साल दर्शकों के लिए खुला रहता है। इस मंदिर के इतिहास के साथ एक कहानी जुड़ी हुई है, जो धार्मिक युग में हमें पीछे की ओर ले जाती है। इस कथा के अनुसार भगवान शिव की पत्नी सती (हिन्दु धर्म में एक पवित्र अवतार) ने अपना जीवन उस यज्ञ के आयोजन में समर्पित कर दिया जो उनके पिता दक्ष द्वारा आयोजित किया गया था, क्योंकि उन्होंने अपने पिता द्वारा अपने पति के अपमान को सहन नहीं किया। यह समाचार सुनने पर कि उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई है, भगवान शिव जो सभी का नाश भी कर सकते हैं, आवेश में आए और उन्होंने दक्ष को दण्ड दिया तथा उनके सिर के स्थान पर बकरे का सिर लगा दिया। दुख और आवेश से पीडित शिव ने अपनी पत्नी सती का शरीर उठाया और विनाश का नृत्य अर्थात तांडव किया। विनाशकर्ता का आवेश इतना सघन था कि अनेक देवता उनके क्रोध को शांत करने के लिए तत्पर हुए। इस संघर्ष के बीच में भगवान विष्णु के हाथ में स्थित चक्र से सती के पार्थिव शरीर के 51 हिस्से हो गए (जो हिन्दु धर्म में एक अन्य महत्वपूर्ण देवता हैं) और उनका प्रजनन अंग या योनि उस स्थान पर गिरी जहां आज कामाख्या मंदिर स्थित है और आज यह उनके शरीर के अन्य हिस्सों के साथ एक शक्ति पीठ बन गया है।
कूच बिहार के राजा नर नारायण ने 1665 में इस मंदिर का दोबारा निर्माण कराया, जब इस पर विदेशी आक्रमणकारियों ने हमला कर नुकसान पहुंचाया। इस मंदिर में सात अण्डाकार स्पायर हैं, जिनमें से प्रत्येक पर तीन सोने के मटके लगे हुए हैं और प्रवेश द्वारा सर्पिलाकार है जो एक घुमावदार रास्ते से थोड़ी दूर पर खुलता है, जो विशेष रूप से मुख्य सड़क को मंदिर से जोड़ता है। मंदिर के शिल्पकला से बनाए गए कुछ पैनलों पर प्रसन्नता की स्थिति में कुछ हिन्दु देवी और देवताओं के चित्र हैं। कच्छुए, बंदर और बड़ी संख्या में कबूतरों ने इस मंदिर को अपना घर बनाया है तथा ये इसके परिसर में घुमते रहते हैं, जिन्हें मंदिर के प्राधिकारियों द्वारा तथा दर्शकों द्वारा भोजन कराया जाता है। मंदिर का शांत और कलात्मक वातावरण कुल मिलाकर दर्शकों के मन को एक अनोखी शांति देता है और उनके मन में एक सात्विक भावना उत्पन्न होती है, यही कारण है कि यहां काफी लोग आते हैं।
इसकी रहस्यमय भव्यता और देखने योग्य स्थान के साथ कामाख्या मंदिर न केवल असम बल्कि पूरे भारत का चकित कर देने वाला मंदिर है।
काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी
इसके धार्मिक महत्व के अलावा यह मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से भी अनुपम है। इसका भव्य प्रवेश द्वार देखने वालों की दृष्टि में मानो बस जाता है। ऐसा कहा जाता है कि एक बार इंदौर की रानी अहिल्या बाई होलकर के स्वप्न में भगवान शिव आए। वे भगवान शिव की भक्त थीं और इसलिए उन्होंने 1777 में यह मंदिर निर्मित कराया।
विश्वनाथ खण्ड को पुरान शहर भी कहा जाता है जो दशाश्व मेध घाट और गोदुलिया के बीच मणिकर्णिका घाट के दक्षिण और पश्चिम तक नदी की उत्तर दिशा में वाराणसी के मध्य स्थित है। यह पूरा क्षेत्र ही घूमने योग्य है जहां अनेक मठ और लिंग हर कोने में दिखाई देते हैं और यहां धार्मिक यात्रियों, पंडों की गतिविधियां तथा भक्तों को मंदिर में अर्पित करने की सामग्री की दुकानें बड़ी संख्या में हैं।
सकरी गलियों से विश्वनाथ गली तक पहुंचते हुए यह विश्वनाथ या विश्वेश्वर मंदिर ''सभी के भगवान'' माने जाते हैं और इसके शिखर पर स्वर्ण लेपन होने के कारण इसे स्वर्ण मंदिर भी कहते हैं। परिसर के अंदर, जो एक दीवार के पीछे छुपा है और यहां एक अत्यंत अनोखे प्रकार के द्वार से पहुंचा जाता है, जो भारत का सबसे महत्वपूर्ण शिवलिंग है और यह चिकने काले पत्थर से बना हुआ है और इसे ठोस चांदी के आधार में रखा गया है। महाकाल और दण्ड पाणी के क्रुद्ध संरक्षकों के आश्रम और अविमुक्तेश्वर के लिंग भी इस मंदिर के संकुल में हैं।
यहां भक्त जन आकर संकल्प करते हैं और पंच तीर्थ यात्रा शुरू करने के पहले अपने मन की भावना यहां व्यक्त करते हैं। मुख्य सड़क पर कुछ उत्तर दिशा में 13वीं शताब्दी में बनी रजिया की मस्जिद दिखाई देती है जो पूर्व विश्वनाथ मंदिर के भग्नावशेषों के साथ खड़ी है।
वाराणसी एक ऐसा स्थान कहा जाता है जहां प्रथम ज्योतिर्लिंग है, शिव द्वारा प्रकाश के उज्जवल स्तंभ से अन्य देवाओं पर उनकी श्रेष्ठता प्रदर्शित होती है जो पृथ्वी की पर्त तोड़ कर निकली और स्वर्ग की ओर इसकी ज्वाला गई। यहां घाटों और गंगा नदी के अलावा मंदिर में स्थापित शिव लिंग वाराणसी का धार्मिक आकर्षण बना हुआ है।
क्ये मठ
हुमायूं का मकबरा
इस स्मारक की भव्यता यहां आने पर दो मंजिला प्रवेश द्वार से अंदर प्रवेश करते समय ही स्पष्ट हो जाती है। यहां की ऊंची छल्लेदार दीवारें एक चौकोर उद्यान को चार बड़े वर्गाकार हिस्सों में बांटती हैं, जिनके बीच पानी की नहरें हैं। प्रत्येक वर्गाकार को पुन: छोटे मार्गों द्वारा छोटे वर्गाकारों में बांटा गया है, जिससे एक प्रारूपिक मुहर उद्यान, चार बाग बनता है। यहां के फव्वारों को सरल किन्तु उच्च विकसित अभियांत्रिकी कौशलों से बनाया गया है जो इस अवधि में भारत में अत्यंत सामान्य है। अंतिम मुगल शासक, बहादुर शाह जफर ।। ने 1857 में स्वतंत्र के प्रथम संग्राम के दौरान इसी मकबरे में आश्रय लिया था। मुगल राजवंश के अनेक शासकों को यहीं दफनाया गया है। हुमायूं की पत्नी को भी यहीं दफनाया गया था।
यहां केन्द्रीय कक्ष में मुख्य इमारत मुस्लिम प्रथा के अनुसार उत्तर - दक्षिण अक्ष पर अभिविन्यस्त है। पारम्परिक रूप से शरीर को उत्तर दिशा में सिर, चेहरे को मक्का की ओर झुका कर रखा जाता है। यहां स्थित संपूर्ण गुम्बद एक पूर्ण अर्ध गोलाकार है जो मुगल वास्तुकला की खास विशेषता है। यह संरचना लाल सेंड स्टोन से निर्मित की गई है, किन्तु यहां काले और सफेद संगमरमर का पत्थर सीमा रेखाओं में उपयोग किया गया है। यूनेस्को ने इस भव्य मास्टर पीस को विश्व विरासत घोषित किया है।
खजुराहो स्मारक समूह
यशोवरमन (एडी 954) ने विष्णु का मंदिर बनवाया जो अब लक्ष्मण मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है और यह चंदेल राजाओं की प्रतिष्ठा का दावा करने वाले इसके समय के एक उदाहरण के रूप में एक आभूषण के रूप में स्थित है।
खजुराहो के मंदिर अपनी वास्तुकलात्मक कला के लिए विश्वविख्यात है और इसे यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत घोषित किया गया है। विश्वनाथ, पार्श्व नाथ और वैद्य नाथ के मंदिर राजा डांगा के समय से हैं जो यशोवरमन के उत्तरवर्ती थे। जगदम्बी चित्र गुप्ता खजुराहो के भाव्य मंदिरों में पश्चिमी समूह के बीच उल्लेखनीय है। खजुराहो का सबसे बड़ा और महान मंदिर अनश्वर कंदारिया महादेव का है जिसे राजा गंडा (एडी 1017 - 29) ने बनवाया है। इसके अलावा कुछ अन्य उदाहरण हैं जैसे कि बामन, आदि नाथ, जवारी, चतुर्भुज और दुल्हादेव कुछ छोटे किन्तु विस्तृत रूप से संकल्पित मंदिर हैं। खजुराहो का मंदिर समूह अपनी भव्य छतों (जगती) और कार्यात्मक रूप से प्रभावी योजनाओं के लिए भी उल्लेखनीय है। यहां की शिल्पकलाओं में धार्मिक छवियों के अलावा परिवार, पार्श्व, अवराणा देवता, दिकपाल और अप्सराएं तथा सूर सुंदरियां भी हैं, जो उनकी कोमल और युवा नारीत्व के रूप में अपनी अपार सुंदरता के लिए विश्व भर में प्रशंसित हैं। यहां वेशभूषा और आभूषण भव्यता और मनमोहक हैं।
महाबोधि मंदिर संकुल, बोध गया
प्रथम मंदिर तीसरी शताब्दी बी. सी. में सम्राट अशोक द्वारा निर्मित कराया गया था और वर्तमान मंदिर पांचवीं या छठवीं शताब्दी में बनाए गए। यह ईंटों से पूरी तरह निर्मित सबसे प्रारंभिक बौद्ध मंदिरों में से एक है जो भारत में गुप्त अवधि से अब तक खड़े हुए हैं। महाबोधि मंदिर का स्थल महात्मा बुद्ध के जीवन से जुड़ी घटनाओं और उनकी पूजा से संबंधित तथ्यों के असाधारण अभिलेख प्रदान करते हैं, विशेष रूप से जब सम्राट अशोक ने प्रथम मंदिर का निर्माण कराया और साथ ही कटघरा और स्मारक स्तंभ बनवाया। शिल्पकारी से बनाया गया पत्थर का कटघरा पत्थर में शिल्पकारी की प्रथा का एक असाधारण शुरूआती उदाहरण है।
मीनाक्षी मंदिर, मदुरै
मदुरै शहर के हृदय में स्थित मीनाक्षी - सुंदरेश्वर का मंदिर भगवान शिव की पत्नी देवी मीनाक्षी के प्रति समर्पित है। यह भारत और विदेशों से आने वाले पर्यटकों का आकर्षण केन्द्र होने के साथ हिन्दु धार्मिक यात्राओं के महत्वपूर्ण स्थानों में से एक है। मदुरै के लोगों के लिए यह मंदिर उनकी सांस्कृतिक तथा धार्मिक जिंदगी का केन्द्र है।
यह कहा जाता है कि शहर के लोग न केवल प्रकृति की आवाज सुनकर बल्कि मंदिर के मंत्रोच्चार को सुनकर भी जागते हैं। तमिलनाडु के सभी प्रमुख त्यौहार यहां श्रद्धा के साथ मनाए जाते हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार चितराई त्यौहार है, जिसका आयोजन अप्रैल - मई में किया जाता है। जब मीनाक्षी और सुंदरेश्वर की खगोलीय विधि से शादी आयोजित की जाती है और इसमें पूरे राज्य से लोगों का समूह जिसे देखने आता है।
शिल्पकारी वाले स्तंभ विशिष्ट भित्ति चित्रों से ढके हुए हैं जो राजकुमारी मीनाक्षी और भगवान शिव के साथ उनके विवाह के समय के दृश्यों से भर पूर हैं। आंगन के पार सुंदरेश्वर के मंदिर में भगवान शिव को लिंग के माध्यम से प्रतिनिधित्व दिया जाता है। यहां बने स्तंभ मीनाक्षी तथा सुंदरेश्वर के विवाह के दृश्यों से सजे हुए है। यहां लगभग 985 समृद्ध पच्चीकारी वाले स्तंभ है और सुंदरता में सभी एक दूसरे को पीछे छोड़ देते हैं।
लोक कथा
देवी मीनाक्षी को राजा मल्लय द्वज पांडिया और रानी कांचन माला की बेटी माना जाता है, जो कई यज्ञों के बाद पैदा हुई थी। यह तीन वर्ष की बालिका अंतिम यज्ञ की आग से प्रकट हुई थी। राजकुमार मीनाक्षी बड़े होकर एक सुंदर महिला में बदल गई जो अनेक भूमियों के संघर्ष में विजयी रही और शक्तिशाली से शक्तिशाली राजाओं को उसने चुनौती दी। जब यह प्रकट हुआ कि राजकुमारी वास्तव में पार्वती जी का पुन:जन्म है, जो पृथ्वी पर अपने पिछले जीवन में कांचन माला को दिए गए वचन का सम्मान करने के लिए आई है। इस प्रकार शिव मीनाक्षी से विवाह करने के लिए सुंदरेश्वर के रूप में मदुरै आए और यहां कई वर्षों तक शासन किया तथा दोनों ने उस स्थान से ही स्वर्ग की यात्रा आरंभ की जहां यह मंदिर आज स्थित है।इस दोहरे मंदिर संकुल की भव्यता और इसका ऐतिहासिक महत्व शहर में प्राचीन समय का गौरव दर्शाता है किन्तु आज मदुरै भारत का सबसे अधिक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक तथा वाणिज्यिक केन्द्र है। इस शहर में आधुनिकता पहुंच गइ है परन्तु यह इनकी समृद्ध संस्कृति और सशक्त परम्परा की कीमत पर नहीं है।
मेहरानगढ़ का किला
नीचे स्थित शहर के सामने अटल रूप से खड़ा यह किला ऊबड़ खाबड़ और पथरीली घाटी को नज़र अंदाज करता है और इसमें लम्बी तराशी गई कृतियों और लाल सैंड स्टोन से अदभुत बारीकी की जालियों वाली खिड़कियों से युक्त महल है।
इसके अंदर स्थित कक्षों में अपना एक अलग आकर्षण है - मोती महल (पुर्ल पैलेस), फूल महल (फ्लावर पैलेस), शीश महल (मिरर पैलेस), सिलेह खाना, दौलत खाना, जिनका अपना एक विविध समृद्ध . . . . . . . . ., हावड़ा, शाही पालने, विभिन्न विद्यालयों की छोटी तस्वीरें, लोक संगीत, उपकरण, परिधान, फर्नीचर और प्रभावशाली शस्त्र का भण्डार है।
चामुंडा मंदिर के पास ढलान पर केनन का प्रदर्शन भारत का एक दर्लभ स्थान है। जैसे जैसे पर्यटक आगे बढ़ते हैं लोक संगीत बजाने वाले कलाकार पिछले समय की भव्यता पुन: जीवित करते हैं।
मैसूर का महल
एक समय में वोडेयार का निवास रह चुका मैसूर का महल भारत में अपने प्रकार का सबसे बड़ा महल है और यह अत्यंत भव्य महलों में से एक है। भारतीय - सारसैनिक शैली में गुम्बदों, प्राचीरों, आर्च तथा कोलोनेड के साथ निर्मित यह महल अपनी भव्यता के कारण ब्रिटेन के बकिंघम पैलेस के साथ तुलना में शुमार किया जाता है। मद्रास राज्य के ब्रिटिश परामर्श दाता वास्तुकार हेनरी इरविन ने इसे डिजाइन किया। इस महल का निर्माण पुराने लकड़ी के महल के स्थान पर 1912 में वोडेयार के 24वें राजा द्वारा कराया गया था, जो वर्ष 1897 में टूट गया था।
अब इस महल को संग्रहालय में बदल दिया गया है, जिसमें स्मृति चिन्ह, तस्वीरें, आभूषण, शाही परिधान और अन्य सामान रखे गए हैं, एक समय जो वोडेयार शासकों के पास होते थे। ऐसा कहा जाता है कि महल में सोने के आभूषणों का सबसे बड़ा संग्रह प्रदर्शित किया गया है।
शाही हाथी का सोने का हौज़, दरबार हॉल और कल्याण मंडप यहां के मुख्य आकर्षण हैं। महल में प्रवेश का रास्ता एक सुंदर दीर्घा से होकर गुजरता है जिसमें भारतीय तथा यूरोपीय शिल्पकला और सजावटी वस्तुएं हैं। हाथी द्वार इसकी आधी दूरी पर है, जो महल के केन्द्र का मुख्य प्रवेश द्वार है। इस प्रवेश द्वार को फूलों की डिज़ाइन से सजाया गया है और इस पर दो सिरों वाले बाज का मैसूर का शाही प्रतीक बना हुआ है। इस प्रवेश द्वार के उत्तर में शाही हाथी हौज प्रदर्शित किया गया है जो 24 कैरिट स्वर्ण के 84 किलो ग्राम से बना है।
कल्याण मंडप की ओर जाने वाली दीवारों पर सुंदर तैल चित्र लगे हुए हैं जिनमें मैसूर के दशहरा त्यौहार के शाही जुलूस को चित्रित किया गया है। इन तस्वीरों के बारे में एक विशिष्ट बात यह है कि इसे किसी भी दिशा से देखा जा सकता है ऐसा लगता है कि यह जुलूस आप ही की दिशा में आ रहा है। यह हॉल अपने आप में अत्यंत भव्य है और इसमें विशाल झूमरों और कई रंगों वाले कांच को मोर के आकार में सजाकर बनाए गए डिज़ाइन से सजाया गया है। महल के ऐतिहासिक दरबार हॉल में ऊंची छत और शिल्पकारी से बने खम्भे हैं जिन्हें सोने से लेपित किया गया है। यहां कुछ प्रतिष्ठित कलाकारों द्वारा बनाई गई दुर्लभ तस्वीरों का खजाना भी है। यह हॉल जो सीढियों के ऊपर है, यहां से चामुंडी पहाड़ी का मनोरम दृश्य दिखाई देता है, जो शहर के ऊपर है और यहां शाही परिवार की संरक्षक देवी, चामुंडेश्वरी देवी को समर्पित एक मंदिर है।
यह महल परिवार की शाम और त्यौहारों के अवसर पर और भी अधिक भव्य तथा सुंदर दिखाई देता है जब इसे हजारों बल्बों से रोशन किया जाता है।
नालंदा
पुराना किला
कुतुब मीनार
13वीं शताब्दी में निर्मित यह भव्य मीनार राजधानी, दिल्ली में खड़ी है। इसका व्यास आधार पर 14.32 मीटर और 72.5 मीटर की ऊंचाई पर शीर्ष के पास लगभग 2.75 मीटर है। यह प्राचीन भारत की वास्तुकला का एक नगीना है।
इस संकुल में अन्य महत्वपूर्ण स्मारक हैं जैसे कि 1310 में निर्मित एक द्वार, अलाइ दरवाजा, कुवत उल इस्लाम मस्जिद; अलतमिश, अलाउद्दीन खिलजी तथा इमाम जामिन के मकबरे; अलाइ मीनार सात मीटर ऊंचा लोहे का स्तंभ आदि।
गुलाम राजवंश के कुतुब उद्दीन ऐबक ने ए. डी. 1199 में मीनार की नींव रखी थी और यह नमाज़ अदा करने की पुकार लगाने के लिए बनाई गई थी तथा इसकी पहली मंजिल बनाई गई थी, जिसके बाद उसके उत्तरवर्ती तथा दामाद शम्स उद्दीन इतुतमिश (ए डी 1211-36) ने तीन और मंजिलें इस पर जोड़ी। इसकी सभी मंजिलों के चारों ओर आगे बढ़े हुए छज्जे हैं जो मीनार को घेरते हैं तथा इन्हें पत्थर के ब्रेकेट से सहारा दिया गया है, जिन पर मधुमक्खी के छत्ते के समान सजावट है और यह सजावट पहली मंजिल पर अधिक स्पष्ट है।
कुवत उल इस्लाम मस्जिद मीनार के उत्तर - पूर्व ने स्थित है, जिसका निर्माण कुतुब उद्दीन ऐबक ने ए डी 1198 के दौरान कराया था। यह दिल्ली के सुल्तानों द्वारा निर्मित सबसे पुरानी ढह चुकी मस्जिद है। इसमें नक्काशी वाले खम्भों पर उठे आकार से घिरा हुआ एक आयातकार आंगन है और ये 27 हिन्दु तथा जैन मंदिरों के वास्तुकलात्मक सदस्य हैं, जिन्हें कुतुब उद्दीन ऐबक द्वारा नष्ट कर दिया गया था, जिसका विवरण मुख्य पूर्वी प्रवेश पर खोदे गए शिला लेख में मिलता है। आगे चलकर एक बड़ा अर्ध गोलाकार पर्दा खड़ा किया गया था और मस्जिद को बड़ा बनाया गया था। यह कार्य शम्स उद्दीन इतुतमिश ( ए डी 1210-35) द्वारा और अला उद्दीन खिलजी द्वारा किया गया था। इसके आंगन में स्थित लोहे का स्तंभ चौथी शताब्दी ए डी की ब्राह्मी लिपि में संस्कृत के शिला लेख दर्शाता है, जिसके अनुसार इस स्तंभ को विष्णु ध्वज (भगवान विष्णु के एक रूप) द्वारा स्थापित किया गया था और यह चंद्र नाम के शक्ति शाली राजा की स्मृति में विष्णु पद नामक पहाड़ी पर बनाया गया था। इस स्तंभ के ऊपरी सिरे में एक गहरी खांच दिखाई देती है जो संभव तया गरूड़ को इस पर लगाने के लिए थी।
इतुतमिश (1211-36 ए डी) का मकबरा ए डी 1235 में बनाया गया था। यह लाल सेंड स्टोन का बना हुआ सादा चौकोर कक्ष है, जिसमें ढेर सारे शिला लेख, ज्यामिति आकृतियां और अरबी पैटर्न में सारसेनिक शैली की लिखावटे प्रवेश तथा पूरे अंदरुनी हिस्से में दिखाई देती है। इसमें से कुछ नमूने इस प्रकार हैं: पहिए, झब्बे आदि हिन्दू डिज़ाइनों के अवशेष हैं।
अलाइ दरवाजा, कुवात उल्ल इस्माल मस्जिद के दक्षिण द्वार का निर्माण अला उद्ददीन खिलजी द्वारा ए एच 710 ( ए डी 1311) में कराया गया था, जैसा कि इस पर तराशे गए शिला लेख में दर्ज किया गया है। यह निर्माण और सजावट के इस्लामी सिद्धांतों के लागू करने वाली पहली इमारत है।
अलाइ मीनार, जो कुतुब मीनार के उत्तर में खड़ी हैं, का निर्माण अला उद्दीन खिलजी द्वारा इसे कुतुब मीनार से दुगने आकार का बनाने के इरादे से शुरू किया गया था। वह केवल पहली मंजिल पूरी करा सका, जो अब 25 मीटर की ऊंचाई की है। कुतुब के इस संकुल के अन्य अवशेषों में मदरसे, कब्रगाहें, मकबरें, मस्जिद और वास्तुकलात्मक सदस्य हैं।
यूनेस्को को भारत की इस सबसे ऊंची पत्थर की मीनार को विश्व विरासत घोषित किया है।
राष्ट्रपति भवन
ब्रिटिश वाइ सराय के लिए नई दिल्ली में एक आवास निर्मित करने का निर्णय यह तय करने के बाद दिया गया था कि भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लाई जाएगी। यह भारत में ब्रिटिश राज के स्थायित्व की पुष्टि करने के लिए निर्मित किया गया था और यह भवन तथा इसके आस पास के इलाके को ''पत्थर के प्रासाद'' के रूप में तैयार किया गया था। ''पत्थर के प्रासाद'' और यहां के विशाल दरबार को 26 जनवरी 1950 के दिन स्थायी लोकतंत्र के संस्थान में रूपांतरित कर दिया गया जब डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के राष्ट्रपति हुए और इस भवन पर भारत के संविधान को संरक्षित, सुरक्षित और उसकी रक्षा के लिए यहां निवास किया। इस दिन इस भवन का नाम राष्ट्रपति भवन रखा गया।
यह भवन 1929 में 4 वर्ष की अवधि के अंदर निर्मित किया जाना था, किन्तु इसे पूरा करने में 17 वर्ष लगे। यह विशाल भवन 4 तलों वाला है और इसमें 340 कमरे हैं। यहां 200,000 वर्ग फीट का सतही क्षेत्र है, इसे बनाने में 700 मिलियन ईंटों तथा 3 मिलियन घन फीट पत्थरों का इस्तेमाल हुआ था। इस भवन के निर्माण में शायद ही कहीं लोहे का इस्तेमाल किया गया है। यह भवन दो रंगों के पत्थरों से निर्मित किया गया है और इसमें मुगल तथा क्लासिकल यूरोपीय शैली की वास्तुकला झलकती है। राष्ट्रपति भवन का सबसे अधिक प्रमुख और विशिष्ट पक्ष इसका गुम्बद है, जो सांची के महान स्तूप के पैटर्न पर बनाया गया है। यह गुम्बद दूर से ही दिखाई देता है और यह खम्भों की लंबी कतार पर खड़ा है, जो राष्ट्रपति भवन की भव्यता को और अधिक बढ़ा देते हैं।
दरबार हॉल, अशोक हॉल, मार्बल हॉल, उत्तरी अतिथि कक्ष, नालंदा सूट इतने अधिक सजावट वाले हैं कि इन्हें देखने वाले लोग सहज भी इनकी सुंदरता और भव्यता में खो जाएं। राष्ट्रपति निवास के अंदर एक शानदार मुगल गार्डन है जो लगभग 13 एकड़ के क्षेत्रफल में फैला है और यह ब्रिटिश गार्डन की डिजाइन के साथ औपचारिक मुगल शैली का एक मिश्रण है। मुख्य उद्यान मुगल गार्डन का सबसे बड़ा हिस्सा है, जिसे ''पीस द रजिस्टेंस'' कहते हैं। यह 200 मीटर लम्बा और 175 मीटर चौड़ा है। इसके उत्तर और दक्षिण में टेरिस गार्डन हैं और इसके पश्चिम में टेनिस कोर्ट तथा लॉन्ग गार्डन है।
यहां दो नहरें उत्तर से दक्षिण और दो नहरें पूर्व से पश्चिम की ओर बहती हैं तथा ये इस उद्यान को चौकोर हिस्सों में बांटती हैं। यहां कमल के आकार के 6 फव्वारे इन नहरों के मिलन बिन्दु पर बने हुए हैं। ये सक्रिय फव्वारे 12 फीट की ऊंचाई तक पानी की धारा उठाते हैं जो दर्शकों का मन मोह लेते हैं। यहां की नहरे भी अपनी धीमी गति से देखने वालों को मानों बर्फ में बदल देती हैं। नहरों के केन्द्र में लकड़ी की एक ट्रे पर चिडियों को चुगाने के लिए दाने डाले जाते हैं। यह उद्यान अनेक प्रकार के स्वदेशी और विशिष्ट प्रकार के फूलों से अटा पड़ा है, जो बसंत के मौसम में देखने वालों की आंखों में बस जाता है। इन सब के अलावा राष्ट्रपति भवन में टेनिस कोर्ट, पोलो ग्राउंड, गोल्फ कोर्स और क्रिकेट का मैदान भी है।
मुगल गार्डन हर वर्ष फरवरी - मार्च के महीने में जनता के लिए खोला जाता है। यहां सोमवार के अलावा सभी दिनों पर सुबह 9.30 बजे से दोपहर 2.30 बजे तक दर्शक आ सकते हैं। यहां प्रवेश की जानकारी जनता को विभिन्न प्रचार माध्यमों से दी जाती है। इस उद्यान में आने और जाने के रास्तों को राष्ट्रपति आवास के गेट नंबर 35 से विनियमित किया जाता है, जो चर्च रोड के पश्चिमी सिरे पर नॉर्थ एवेन्यू के पास स्थित है।
लाल किला, दिल्ली
मुगल शासक, शाहजहां ने 11 वर्ष तक आगरा से शासन करने के बाद तय किया कि राजधानी को दिल्ली लाया जाए और यहां 1618 में लाल किले की नींव रखी गई। वर्ष 1647 में इसके उद्घाटन के बाद महल के मुख्य कक्ष भारी पर्दों से सजाए गए और चीन से रेशम और टर्की से मखमल ला कर इसकी सजावट की गई। लगभग डेढ़ मील के दायरे में यह किला अनियमित अष्टभुजाकार आकार में बना है और इसके दो प्रवेश द्वार हैं, लाहौर और दिल्ली गेट।
लाहौर गेट से दर्शक छत्ता चौक में पहुंचते हैं, जो एक समय शाही बाजार हुआ करता था और इसमें दरबारी जौहरी, लघु चित्र बनाने वाले चित्रकार, कालिनों के निर्माता, इनेमल के कामगार, रेशम के बुनकर और विशेष प्रकार के दस्तकारों के परिवार रहा करते थे। शाही बाजार से एक सड़क नवाबर खाने जाती है, जहां दिन में पांच बार शाही बैंड बजाया जाता था। यह बैंड हाउस मुख्य महल में प्रवेश का संकेत भी देता है और शाही परिवार के अलावा अन्य सभी अतिथियों को यहां झुक कर जाना होता है।
दीवान ए आम लाल किले का सार्वजनिक प्रेक्षा गृह है। सेंड स्टोन से निर्मित शेल प्लास्टर से ढका हुआ यह कक्ष हाथी दांत से बना हुआ लगता है, इसमें 80 X 40 फीट का हॉल स्तंभों द्वारा बांटा गया है। मुगल शासक यहां दरबार लगाते थे और विशिष्ट अतिथियों तथा विदेशी व्यक्तियों से मुलाकात करते थे। दीवान ए आम की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी पिछली दीवार में लता मंडप बना हुआ है जहां बादशाह समृद्ध पच्चीकारी और संगमरमर के बने मंच पर बैठते थे। इस मंच के पीछे इटालियन पिएट्रा ड्यूरा कार्य के उत्कृष्ट नमूने बने हुए हैं।
किले का दीवाने खास निजी मेहमानों के लिए था। शाहजहां के सभी भवनों में सबसे अधिक सजावट वाला 90 X 67 फीट का दीवाने खास सफेद संगमरमर का बना हुआ मंडप है जिसके चारों ओर बारीक तराशे गए खम्भे हैं। इस मंडप की सुंदरता से अभिभूत होकर बादशाह ने यह कहा था ''यदि इस पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं हैं, यहीं हैं"।
कार्नेलियन तथा अन्य पत्थरों के पच्चीकारी मोज़ेक कार्य के फूलों से सजा दीवाने खास एक समय प्रसिद्ध मयूर सिहांसन के लिए भी जाना जाता था, जिसे 1739 में नादिरशाह द्वारा हथिया लिया गया, जिसकी कीमत 6 मिलियन स्टर्लिंग थी।
भीमबेटका की पहाड़ी गुफाएं
सेंड स्टोन के बड़े खण्डों के अंदर अपेक्षाकृत घने जंगलों के ऊपर प्राकृतिक पहाड़ी के अंदर पांच समूह हैं, जिसके अंदर मिज़ोलिथिक युग से ऐतिहासिक अवधि के बीच की तस्वीरें मौजूद हैं। इस स्थल के पास 21 गांवों के निवासियों की सांस्कृतिक परम्परा में इन पहाड़ी तस्वीरों के साथ एक सशक्त साम्यता दिखाई देती है।
इसमें से अधिकांश तस्वीरें लाल और सफेद रंग के साथ कभी कभार पीले और हरे रंग के बिन्दुओं से सजी हैं, जिनमें दैनिक जीवन की घटनाओं से ली गई विषय वस्तुएं चित्रित हैं, जो हज़ारों साल पहले का जीवन दर्शाती हैं। यहां दर्शाए गए चित्र मुख्यत: नृत्य, संगीत बजाने, शिकार करने, घोड़ों और हाथियों की सवारी, शरीर पर आभूषणों को सजाने तथा शहद जमा करने के बारे में हैं। घरेलू दृश्यों में भी एक आकस्मिक विषय वस्तु बनती है। शेर, सिंह, जंगली सुअर, हाथियों, कुत्तों और घडियालों जैसे जानवरों को भी इन तस्वीरों में चित्रित किया गया है। इन आवासों की दीवारें धार्मिक संकेतों से सजी हुई है, जो पूर्व ऐतिहासिक कलाकारों के बीच लोकप्रिय थे।
सेंट केथेड्रल
इस केथेड्रल को पुर्तगाली वाइसराय, रिडोंडो ने ''पुर्तगाल के एक विशाल चर्च, जहां संपत्ति, शक्ति और प्रसिद्धि हो, एक ऐसे रूप में स्थापित किया था, जो अटलांटिक से प्रशांत महासागर तक समुद्र पर कब्जा कर सके। इसके विशाल मुक्त द्वार का निर्माण 1562 में राजा डोम सेबास्टियो (1557-78) और इसे 1619 में काफी हद तक पूरा किया गया था। यह 1640 में इसे अर्पित किया गया था।
यह चर्च 250 फीट लंबा और 181 फीट चौड़ा है। इसका अगला हिस्सा 115 फीट ऊंचा है। यह भवन पुर्तगाली - गोथिक शैली में टस्कन बाह्य सज्जा तथा कोरिंथयन अंदरुनी सज्जा के साथ बनाया गया है। केथेड्रल का बाह्य हिस्सा शैली की सादगी के लिए उल्लेखनीय है, जबकि इसकी अंदरुनी सजावट अपनी सुंदर भव्यता से दर्शकों का मन मोह लेती है।
केथेड्रल के स्तंभ गृह में प्रसिद्ध घंटा है जो गोवा में सबसे बड़ा तथा विश्व में एक सर्वोत्तम कृति माना जाता है, जिसे बहुधा अपनी शानदार आवाज के लिए ''स्वर्ण घंटी'' कहा जाता है। यहां मुख्य पूजा स्थल अलेक्सेंड्रिया के सेंट केथेरिन को समर्पित है और यहां दोनों ओर लगी तस्वीरें उनके जीवन तथा निर्माण के दृश्य प्रदर्शित करती हैं।
नेव की दांईं ओर चमत्कारों का चेपल ऑफ क्रॉस बना हुआ है। ईसा मसीह की एक झलक इस विशाल, सादे क्रॉस पर 1919 में प्रकट होने का उल्लेख है। मुख्य पूजा गृह में विशाल सोने का आवरण चढ़े हुए वेदी पटल हैं। सेंट केथेरिन के जीवन के दृश्य, जिन्हें यह केथेड्रल समर्पित है, इसके 6 मुख्य पैनलों पर तराशे गए हैं। बांईं ओर के कक्ष में 1532 के दौरान बपतिस्मा के अक्षर बनाए गए हैं। सेंट फ्रांसीस जेवियर के बारे में कहा जाता है कि इसे इबारत को पढ़ कर उन्होंने हजारों गोवावासियों का बपतिस्मा किया है।
यहां दुनिया भर से हजारों -लाखों लोग आते हैं और इस चर्च को सभी धर्मों के लोगों द्वारा एक धार्मिक स्थल माना जाता है। यह गोवा का एक अपरिहार्य पर्यटक आकर्षण है और गोवा जाने पर से' केथेड्रल को देखें बिना वापस आना यात्रा को अधूरा माना जाता है।
शीश महल
महाराजा नरेन्द्र सिंह को कला तथा साहित्य का एक महान संरक्षक माना जाता था। उन्होंने कांगड़ा और राजस्थान के महान चित्रकारों को बुला कर अनेक प्रकार के चित्रमय दृश्य इस शीश महल की दीवारों पर बनवाए थे, जिसमें साहित्य, पौराणिक और लोक कथाएं उकेरी गई थीं। इनके कार्यों में कवि केशव, सूरदास और बिहारी की कविताओं के दृश्य निरुपित किए गए हैं। इन तस्वीरों में राग - रागिनी, नायक - नायिका और बारामास को राजस्थानी शैली में दर्शाया गया है। शीश महल की दीवारें और छतें फूलों की डिजाइन से भरपूर हैं और इसकी आंतरिक सज्जा में कई प्रकार की छवियां और बहुरंगी रोशनियां शामिल हैं। शीश महल की सबसे अधिक प्रशंसित वस्तु है यहां बनी हुई कांगड़ा शैली की छोटी छोटी तस्वीरें, जिनमें जयदेव द्वारा रचित एक महान कविता संग्रह, गीत गोविंद के दृश्य लिए गए हैं। शीश महल अपने नाम के अनुरूप कांच तथा दर्पण के टुकड़ों से भली भांति सजाया गया है, जो महल का एक पूरा खण्ड शामिल करते हैं।
शीश महल में एक संग्रहालय भी है जिसमें तिब्बती कला की उत्कृष्ट वस्तुएं प्रदर्शित की गई है, विशेष रूप से धातु के विभिन्न प्रकारों से बनी शिल्प कलात्मक वस्तुएं। पंजाब की हाथी दांत पर की गई शिल्पकारी, लकड़ी पर तराश कर बनाए गए शाही फर्नीचर और बड़ी संख्या में बर्मा तथा कश्मीरी दस्तकारी की वस्तुएं भी प्रदर्शित की गई हैं। यहां पटियाला के शासकों के विशाल चित्र संग्रहालय कक्ष की दीवारों की शोभा बढ़ाते हैं। संग्रहालय के संग्रह में कुछ दुर्लभ पांडुलिपियां भी शामिल हैं। जन्म साखी और जैन पांडुलिपियों के अलावा सबसे अधिक कीमती पांडुलिपि गुलिस्तान - बोस्टन की है जिसे शिराज़ के शेख सादी ने लिखा था। इसे मुगल बादशाह शाहजहां द्वारा अपने व्यक्तिगत पुस्तकालय के लिए प्राप्त किया गया था।
शीश महल में स्थापित पदक दीर्घा में दुनिया भर के पदकों और अलंकरणों की बड़ी संख्या प्रदर्शित की गई है, जो 3200 है। इन्हें महाराजा भूपेन्द्र सिंह द्वारा पूरी दुनिया से संग्रह किया गया था। उनके पुत्र महाराजा यदविन्द्र सिंह ने इस अमूल्य संग्रह को पंजाब सरकार के संग्रहालय में उपहार स्वरूप दे दिया। इस संग्रह में इग्लैंड, ऑस्ट्रिया, रूस, बेलजियम, डेनमार्क, फिनलैंड, थाईलैंड, जापान और एशिया तथा अफ्रीका के अन्य अनेक देशों के पदक शामिल हैं।
पदकों के अलावा यहां सिक्कों का भी दुर्लभ संग्रह है। यह विशाल संग्रह अनेक प्रकार के ढाल कर बनाए सिक्कों से बना है, जिन्हें 19वीं शताब्दी में राजशाही राज्यों द्वारा जारी किया गया था। इस सिक्कों में देश के व्यापार, वाणिज्य, विज्ञान और धातु कर्म का इतिहास लाक्षणीकृत किया जाता है।
सिकंदरा का किला
यह मकबरा बड़े उद्यान के बीच में स्थित है, जिसके चारों ओर ऊँची दीवार हैं। प्रत्येक दीवार के बीच में सुंदर प्रवेश द्वार है। पूरा उद्यान पारम्परिक चार बाग योजना के अनुसार चार वर्गों में बंटा है। प्रत्येक वर्ग एक ऊँची छत से अलग किया गया है या इसके मध्य में एक तंग उथली पानी की नहर के साथ ऊँचा उठा हुआ रास्ता है। प्रतयेक छत के केन्द्र में एक तालाब है, जिसमें फव्वारे लगे हैं। एक चौड़ा पैदल रास्ता मकबरे तक जाता है, जिसकी पांच मंजिलें हैं और इसका आकार कटे हुए पिरोमिड जैसा है। मुख्य मकबरे में अनोखी डिजाइन है, जो अन्य सभी मुगल भवनों से एकदम अलग है।
सूर्य मंदिर कोणार्क
कोणार्क का मंदिर न केवल अपनी वास्तुकलात्मक भव्यता के लिए जाना जाता है बल्कि यह शिल्पकला के गुंथन और बारीकी के लिए भी प्रसिद्ध है। यह कलिंग वास्तुकला की उपलब्धियों का उच्चतम बिन्दु है जो भव्यता, उल्लास और जीवन के सभी पक्षों का अनोखा ताल मेल प्रदर्शित करता है।
इस मंदिर को यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत घोषित किया गया है और इसका विमीण 1250 ए. डी. में पूर्वी गंगा राजा नरसिंह देव - 1 (ए. डी. 1238 - 64) के कार्यकाल में किया गया था। इसमें कोणार्क सूर्य मंदिर के दोनों और 12 पहियों की दो कतारें है। इनके बारे में कुछ लोगों का मत है कि 24 पहिए एक दिन में 24 घण्टों का प्रतीक है, जबकि अन्य का कहना है कि ये 12 माह का प्रतीक हैं। यहां स्थित सात अश्व सप्ताह के सात दिन दर्शाते हैं। समुद्री यात्रा करने वाले लोग एक समय इसे ब्लैक पगोडा कहते थे, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह जहाज़ों को किनारे की ओर आकर्षित करता था और उनका नाश कर देता था।
ताजमहल
इतिहास
संगमरमर के इस अद्भुत शाहकार का निर्माण श्रेय मुगल शासक शाहजहां को जाता है, जिन्होंने अपनी प्रिय पत्नी अर्जुमद बानो बेगम की याद में इस मकबरे को खड़ा कराया था, जिन्हें हम मुमताज़ महल के नाम से जानते हैं और इनकी मृत्यु ए एच 1040 (ए डी 1630) में हुई। अपने पति से उन्होंने अंतिम इच्छा व्यक्त की थी की उनकी याद में एक ऐसा मकबरा बनाया जाए जैसा दुनिया ने पहले कभी न देखा हो। इसलिए बादशाह शाहजहां ने परी लोक जैसी कहानियों में बताए गए संगमरमर के इस भवन का निर्माण कराने का निर्णय लिया। ताजमहल का निर्माण ए. डी. 1632 में शुरू हुआ और उसे बनाने का काम 1648 ए डी में पूरा हुआ। ऐसा कहा जाता है कि इस भवन को पूरा करने के लिए सत्रह वर्ष तक लगातार 20,000 लोग काम करते रहें और उनके रहने के लिए दिवंगत रानी के नाम पर मुमताज़ा बाद बनाया गया, जिसे अब ताज गंज कहते हैं और यह भी इसके नजदीक निर्मित किया गया था।अमानत खान शिराजी ताजमहल का केली ग्राफर था, उसका नाम ताज के द्वारा में से एक अंत में तराश कर लिखा गया है। कवि गयासुद्दीन ने मकबरे के पत्थर पर इबारतें लिखी हैं, जबकि इस्माइल खान अफरीदी ने टर्की से आकर इसके गुम्बद का निर्माण किया। मुहम्मद हनीफ मिस्त्रियों का अधीक्षक था। ताजमहल के डिज़ाइनर का नाम उस्ताद अहमद लाहौरी था। इसकी सामग्री पूरे भारत और मध्य एशिया से लाई गई तथा इस सामग्री को निर्माण स्थल तक लाने में 1000 हाथियों के बेड़े की सहायता ली गई। इसका केन्द्रीय गुम्बद 187 फीट ऊंचा है। इसका लाल सेंड स्टोन फतेहपुर सिकरी, पंजाब के जसपेर, चीन से जेड और क्रिस्टल, तिब्बत से टर्कोइश यानी नीला पत्थर, श्रीलंका से लेपिस लजुली और सेफायर, अरब से कोयला और कोर्नेलियन तथा पन्ना से हीरे लाए गए। इसमें कुल मिलाकर 28 प्रकार के दुर्लभ, मूल्यवान और अर्ध मूल्यवान पत्थर ताजमहल की नक्काशी में उपयोग किए गए थे। मुख्य भवन सामग्री, सफेद संगमरमर जिला नागौर, राजस्थान के मकराना की खानों से लाया गया था।
प्रवेश द्वार
ताजमहल का मुख्य प्रवेश दक्षिण द्वार से है। यह प्रवेश द्वार 151 फीट लम्बा और 117 फीट चौड़ा है तथा इसकी ऊंचाई 100 फीट है। यहां पर्यटक मुख्य प्रवेश द्वार के बगल में बने छोटे द्वारों से मुख्य परिसर में प्रवेश करते हैं।मुख्य द्वार
यह मुख्य द्वार लाल सेंड स्टोन से बनाया हुआ 30 मीटर ऊंचाई का है। इस पर अरबी लिपि में कुरान की आयते तराशी गई हैं। इसके ऊपर छोटे गुम्बद के आकार का मंडप हिन्दु शैली का है और अत्यंत भव्य प्रतीत होता है। इस प्रवेश द्वार की एक मुख्य विशेषता यह है कि अक्षर लेखन यहां से समान आकार का प्रतीत होता है। इसे तराशने वालों ने इतनी कुशलता से तराशा है कि बड़े और लम्बे अक्षर एक आकार का होने जैसा भ्रम उत्पन्न करते हैं।यहां चार बाग के रूप में भली भांति तैयार किए गए 300 x 300 मीटर के उद्यान हैं जो पैदल रास्ते के दोनों ओर फैले हुए हैं। इसके मध्य में एक मंच है जहां से पर्यटक ताज की तस्वीरें ले सकते हैं।
ताज संग्रहालय
उपरोक्त उल्लिखित मंच की बांईं ओर ताज संग्रहालय है। मूल चित्रों में यहां उस बारीकी को देखा जा सकता है कि वास्तुकला में इस स्मारक की योजना किस प्रकार बनाई। वास्तुकार ने यह भी अंदाजा लगाया था कि इस इमारत को बनने में 22 वर्ष का समय लगेगा। अंदरुनी हिस्से के आरेख इस बारीकी से कब्रों की स्थिति दर्शाते हैं कि कब्रों के पैर की ओर वाला हिस्सा दर्शकों को किसी भी कोण से दिखाई दे सके।मस्जिद और जवाब
ताज की बांईं ओर लाल सेंड स्टोन से बनी हुई एक मस्जिद है। यह इस्लाम धर्म की एक आम बात है कि एक मकबरे के पास एक मस्जिद का निर्माण किया जाता है, क्योंकि इससे उस हिस्से को एक पवित्रता नीति है और पूजा का स्थान मिलता है। इस मस्जिद को अब भी शुकराने की नमाज़ के लिए उपयोग किया जाता है।ताज की दांईं ओर एक दम समान मस्जिद बनाई गई है और इसे जवाब कहते हैं। यहां नमाज़ अदा नहीं की जाती क्योंकि यह पश्चिम की ओर है अर्थात मक्का के विपरीत, जो मुस्लिमों का पवित्र धार्मिक शहर है। इसे सममिति बनाए रखने के लिए निर्मित कराया गया था।
बाह्य सज्जा
ताजमहल अपने आप में एक ऊंचे मंच पर बनाया गया है। इसकी नींव के प्रत्येक कोने से उठने वाली चार मीनारे मकबरे को पर्याप्त संतुलन देती हैं। ये मीनारे 41.6 मीटर ऊंची हैं और इन्हें जानबूझकर बाहर की ओर हल्का सा झुकाव दिया गया है ताकि भूकंप जैसे दुर्घटना में ये मकबरे पर न गिर कर बाहर की ओर गिरे। ताजमहल का विशाल काय गुम्बद असाधारण रूप से बड़े ड्रम पर टिका है और इसकी कुल ऊंचाई 44.41 मीटर है। इस ड्रम के आधार से शीर्ष तक स्तूपिका है। इसके कोणों के बावजूद केन्द्रीय गुम्बद मध्य में है। यह आधार और मकबरे पर पहुंचने का केवल एक बिंदु है, प्रवेश द्वार की ओर खुलने वाली दोहरी सीढियां। यहां अंदर जाने के लिए जूते निकालने होते हैं या आप जूतों पर एक कवर लगा सकते हैं जो इस प्रयोजन के लिए यहां उपस्थित कर्मचारियों द्वारा आपको दिए जाते हैं।ताज की अंदरुनी सज्जा
इस मकबरे के अंदरुनी हिस्से में एक विशाल केन्द्रीय कक्ष, इसके तत्काल नीचे एक तहखाना है और इसके नीचे शाही परिवारों के सदस्यों की कब्रों के लिए मूलत: आठ कोनों वाले चार कक्ष हैं।इस कक्ष के मध्य में शाहजहां और मुमताज़महल की कब्रें हैं। शाहजहां की कब्र बांईं और और अपनी प्रिय रानी की कब्र से कुछ ऊंचाई पर है जो गुम्बद के ठीक नीचे स्थित है। मुमताज महल की कब्र संगमरमर की जाली के बीच स्थित है, जिस पर पर्शियन में कुरान की आयतें लिखी हैं। इस कब्र पर एक पत्थर लगा है जिस पर लिखा है मरकद मुनव्वर अर्जुमद बानो बेगम मुखातिब बह मुमताज महल तनीफियात फर्र सानह 1404 हिजरी (यहां अर्जुमद बानो बेगम, जिन्हें मुमताज़ महल कहते हैं, स्थित हैं जिनकी मौत 1904 ए एच या 1630 ए डी को हुई)।
शाहजहां की कब्र पर पर्शियन में लिखा है - मरकद मुहताहर आली हजरत फिरदौस आशियानी साहिब - कुरान सानी सानी शाहजहां बादशाह तब सुराह सानह 1076 हिजरी (इस सर्वोत्तम उच्च महाराजा, स्वर्ग के निवासी, तारों मंडलों के दूसरे मालिक, बादशाह शाहजहां की पवित्र कब्र इस मकबरे में हमेशा फलती फूलती रहे, 1607 ए एच (1666 ए डी)) इस कब्र के ऊपर एक लैम्प है, जो जिसकी ज्वाला कभी समाप्त नहीं होती है। कब्रों के चारों ओर संगमरमर की जालियां बनी है। दोनों कब्रें अर्ध मूल्यवान रत्नों से सजाई गई हैं। इमारत के अंदर ध्वनि का नियंत्रण अत्यंत उत्तम है, जिसके अंदर कुरान और संगीतकारों की स्वर लहरियां प्रतिध्वनित होती रहती हैं। ऐसा कहा जाता है कि जूते पहनने से पहले आपको कब्र का एक चक्कर लगाना चाहिए ताकि आप इसे सभी ओर से निहार सकें।
विक्टोरिया मेमोरियल
विक्टोरिया मेमोरियल भारत में ब्रिटिश राज की याद दिलाने वाला संभवतया सबसे भव्य भवन है। यह विशाल सफेद संगमरमर से बना संग्रहालय राजस्थान के मकराना से लाए गए संगमरमर से निर्मित है और इसमें भारत पर शासन करने वाली ब्रिटिश राजशाही की अवधि के अवशेषों का एक बड़ा संग्रह रखा गया है। संग्रहालय का विशाल गुम्बद, चार सहायक, अष्टभुजी गुम्बदनुमा छतरियों से घिरा हुआ है, इसके ऊंचे खम्भे, छतें और गुम्बददार कोने वास्तुकला की भव्यता की कहानी कहते हैं। यह मेमोरियल 338 फीट लंबे और 22 फीट चौड़े स्थान में निर्मित भवन के साथ 64 एकड़ भूमि पर बनाया गया है।
लॉर्ड कर्जन, जो तत्कालीन भारतीय वायसराय थे, ने जनवरी 1901 में महारानी विक्टोरिया की मृत्यु होने पर इसे जनता के लिए ''राजशाही'' स्मारक के रूप में रखने पर प्रश्न उठाया। युवराज और भारत की जनता ने धन उगाही की उनकी इस अपील पर उदारता दिखाई तथा लॉर्ड कर्जन ने लोगों के स्वैच्छिक अंशदान से एक करोड़, पांच लाख रुपए (1,05,00,000 रु.) की राशि से इस स्मारक की निर्माण की पूरी लागत जमा की। प्रिंस ऑफ वेल्स, किंग जॉर्ज पंचम, ने 4 जनवरी 1906 को इसकी आधारशिला रखी तथा 1921 में इसे औपचारिक रूप से जनता के लिए खोल दिया गया।
विक्टोरिया मेमोरियल भारतीय वास्तुकला के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है और इसका पूरा श्रेय लॉर्ड कर्जन को जाता है, जिन्होंने सर विलयम एमर्सन जैसे व्यक्तियों को चुना जो ब्रिटिश इंस्टीट्यूट ऑफ ऑर्किटेक्ट्स के अध्यक्ष थे और जिन्होंने अत्यंत प्रसिद्ध मेसर मार्टिन एण्ड कंपनी, कोलकाता के लिए भवन की संकल्पना और योजना बनाई तथा निर्माण का कार्य कराया।
यह विशाल संरचना इस समय ब्रिटिश भारत के समय के स्मारक चिन्हों का एक संग्रहालय है, जैसे कि प्रसिद्ध यूरोपीय कलाकारों जैसे चार्ल्स डोली, जोहान जोफानी, विलियम हेजिज़, विलियम सिम्पसन, टिली केटल, थोमस हिके, बुलज़ार सोलविन्स, थोमस हिके, इमली एडन और अन्य द्वारा बनाई गई तैलचित्र कला और जल रंगों से बनाए गए चित्र उपलब्ध हैं। इनके अलावा यहां डेनियल्स द्वारा बनाई गई तस्वीरों का विश्व का सबसे बड़ा संग्रह रखा हुआ है।
यहां की रॉयल गेलरी महारानी विक्टोरिया के तैलचित्रों का भण्डार है जो जून 1838 में वेस्टमिनिस्टर एबी में उनके सिंहासन पर आरोहण; प्रिंस अल्बर्ट के साथ उनके विवाह (1840), प्रिंस ऑफ वेल्स के बपतिस्मा और प्रिंस ऑफ वेल्स (एडवर्ड सप्तम) के युवरानी अलेक्सेंड्रा के साथ विवाह के चित्र तथा अन्य अनेक।
इस स्मारक की ऊंचाई 200 फीट (विजय के अंक के आधार पर 184 फीट ऊंचा, जो पुन: 16 फीट ऊंचा है) है और यहां की शांति आपको इसके गलियारों में खो जाने के लिए मजबूर कर देती है। उत्तरी पोर्च के ऊपर आकृतियों का एक समूह मातृ भूमि, विवेक और अधिगम्यता का निरुपण करता है। मुख्य गुम्बद के आस पास कला, वास्तुकला, न्याय, धर्मार्थ सहायता आदि की आकृतियां हैं।
विक्टोरिया मेमोरियल की व्यापकता और भव्यता को इस बात से समझा जा सकता है कि इसे उद्यान, पुस्तकालय जैसे विभिन्न प्रभागों में बांटा गया है और साथ ही यहां रखरखाव के कुछ हिस्से हैं और टीपू सुल्तान की तलवार, प्लासी के युद्ध में उपयोग किए गए बेंत, 1870 से भी पहले की दुर्लभ वस्तुएं, अबुल फज़ल द्वारा लिखी गई आइने - अकबरी जैसी मूल्यवान पांडुलिपियां, दुर्लभ डाक टिकट एवं पश्चिमी तस्वीरों जैसी कीमती वस्तुएं भी यहां रखी गई हैं, जो दर्शकों के लिए इसे एक अविस्मरणीय स्मारक बनाती हैं।
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